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________________ ६०] श्री अमितगति श्रावकाचार ये गृह्यन्ते पुद्गलाः कर्मयोग्याः, क्रोधाद्याढ्यैश्चेतनै रेष बन्धः । मिथ्यादृष्टिनिवतत्वं कषायो, योगो ज्ञेयस्तस्य बन्धस्य हेतुः ॥५४॥ अर्थ-क्रोधादिक कषायनिकरि सहित जीवनिकरि कर्म योग्य पुद्गल ग्रहण करिये है सो यह बन्ध है, बहुरि ता बन्धके बीजभूत कारण मिथ्यादर्शन, अविरत, कषाय, योग जानना योग्य है। भावार्थ-जैसे भूखसहित जीव मुखद्वार करि आहार ग्रहण करै है तैसें मोक्षसहित जीव योगद्वारतें कार्माण वर्गणा ग्रहण कर सो बन्ध कह्या ॥५४॥ बन्धः स मतः प्रकृतिस्थित्यनुभागप्रदेशभेदेन । पटुभिश्चतुःप्रकारो, येन भवे भ्रम्यते जीवः ॥५५॥ अर्थ-प्रकृत्ति स्थिति अनुभाग प्रदेश इन भेदनिकरि सो बन्ध प्रवीण पुरुषनिनै च्यार प्रकार कह्या है, जिस बन्ध करि जीव संसारविर्षे भ्रमाइए है ॥५॥ स्वभावः प्रकृतिः प्रोक्ता, स्थितिः कालावधारणम् । अनुभागो विपाकस्तु, प्रदेशोऽसप्रकल्पनम् ॥५६॥ ... अर्थ-स्वभाव तौ प्रकृति कही है जैसे निंबका कटुक स्वभाव है मिश्री का मिष्ट स्वभाव है ऐसें ज्ञानावरणादिकनिका ज्ञान घातनादिक स्वभाव है सो प्रकृतिबन्ध जानना, बहुरि काल जो अवधारण मर्यादा सो स्थितिबन्ध है। भावार्थ-तिस स्वभावका न छूटना सो स्थिति है। बहुरि विपाक जो रस सो अनुभागबन्ध है, भावार्थ-तिस प्रकृतिक रसविशेषका नाम अनुभव है जैसे अजा गो महिषी आदिके गुग्धनिके तीव्र मन्दादि भावकरि विशेषता है तैसें बहु अंश जे परमाणु तिनकी संख्याका कल्पना सो प्रदेशबन्ध है।
SR No.007278
Book TitleAmitgati Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitgati Aacharya, Bhagchand Pandit, Shreyanssagar
PublisherBharatvarshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages404
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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