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तृतीय परिच्छेद
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मार्गप्रभावना कहिए, बहुरि वच्छाविषै गौकी ज्यों साधर्मी विषै जो प्रीति सो प्रवचन वात्सल्य कहिए । ऐसें यह षोडशकारण सम्यग्दर्शनसहित तीर्थंकर नामकर्मके आस्रवके कारण जानना ॥ ५१ ॥
स्वप्रशंसान्येनिदे
नीचं गोत्रं कुर्वाणोऽसत्सद्गुणोच्छादने च । प्राप्नोत्यंगी प्रार्थनीयं महिष्ठै, रुच्चैर्गोत्रं मंक्षु तद्वैपरीत्ये ॥५२॥
श्रर्थ- आपकी प्रशंसा वा अन्य की निंदा अर आपके न होते गुण प्रगट करना अर दूसरे के होते गुण ढांकना इनकौं करता सन्ता नीच गोत्रकौं प्राप्त होय है, बहुरि तिनके विपरीतपना होतसंतें बड़े पुरुषनिकरि प्रार्थने योग्य उच्च गोत्रकू शीघ्र ही पावै है ।। ५२ ।।
दानं लाभो वीर्य भोगोपभोगा,
नो लभ्यंते प्राणिना विघ्नभाजा । विज्ञायेत्थं विघ्नभीतेनविघ्नो,
नो कर्त्तव्यः पंडितेन त्रिधाऽपि ॥ ५३॥
अर्थ - विघ्न जो अन्तराय ताका करनेवाला जो जीव ताकरि दान लाभ भोग उपभोग वीर्य न पाइए है ऐमा जानि विघ्नतें भयभीत पंडितनकरि मन वचन कायतें विघ्न करना योग्य नाहीं ।
भावार्थ- परके दानादिक में विघ्न करनेतैं अन्तरायका आस्रव होय है ॥५३॥
इहां कोऊ कहै ये ज्ञानावरणादिकके नियमरूप कारण कहे ते सब ही कर्मनके आस्रव के कारण होय हैं । जाका जातैं आगमनविषै ज्ञानावरण का बन्ध होता युगपत औरन का भी बन्ध कहिए है तार्तें आस्रवके नियमका अभाव आया ताकौं कहिए है - यद्यपि पूर्वोक्त कारणकरि ज्ञानावरणादिक सर्वं कर्मनिका प्रदेशादि बन्ध का नियम नाहीं तथापि अनुभाग विशेषके नियमके हेतुपने करि न्यारे कारण कहिए हैं ऐसा जानना ।
आगे बन्ध तत्त्वका वर्णन करें हैं
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