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श्री अमितगति श्रावकाचार
संवादित्वं प्रांजना योगवृत्तिर्नानो, कारणं पूजितस्य ।
ज्ञेयं
वक्रो योगोऽवादि संवादहान्या, हेतुनिन्दनीयस्य
साद्ध
तस्य ॥५१॥
अर्थ-संवादिपना कहिये यथार्थ प्रवृर्त्तावना, कहना अर सरल मन वचनकायरूप योगनिकी परिणति सो पूजित जो शुभ नामकर्म ताका कारण जानना, अर यथार्थ कहनेकी हानि जो संवादहानि ताकरि सहित कुटिल मन वचन कायका योग सो निन्दनीक जो अशुभ नामकर्म ताका कारण है; ऐसा
जानना ।
भावार्थ - इहां नामकर्मका विशेष जो अचिन्त्य शक्तिसहित तीर्थंकर नामकर्म ताके कारण आगम अनुसार कहिए हैं, जिनभाषित निर्ग्रन्थ मोक्षमार्गविषै रुचि निःशंकितादि अष्ट अंग सहित दर्शनविशुद्धि कहिए, बहुरि ज्ञानादिकनिविषै जो परम आदर, कषायनका अभाव सो विनयसम्पन्नता कहिए, बहुरि अहिंसादिक व्रत अर तिनके पालनके अथि जे जे starfar कषायनके त्यागरूप शील तिनविषै निर्दोष प्रवृत्ति सो शीलव्रतेध्वनताचार कहिये, बहुरि ज्ञान भावनाविषै नित्य उपयुक्तपना सो अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग कहिये, बहुरि संसार के दुःखनितें भयभीतपना सो संवेग कहिए, बहुरि आपके वा परके अर्थ देना सो त्याग है, बहुरि नाहीं छिपाया है वीर्य जानें ऐसे पुरुष के मार्गतैं अविरुद्ध कायक्लेश करना सो तप है, बहुरि जैसे भांडागारमैं अग्नि उठते संतें ताका शमन करिए तैसें अनेक व्रत शील करि सहित मुनि के समूह के तपकौं कहूँतें विघ्न उठते संतैं ताका उपशम करि तप की स्थिरता करिये सो साधुसमाधि कहुिए, बहुरि गुणवानकै दुःख आए सन्तै निर्दोष विधि करि दुःख दूर कर करना सो वैयावृत्य कहिए, बहुरि अरहंत निविषे तथा आचार्यनिविष तथा बहुश्रुतनिविषै तथा प्रवचन जो जिनवाणी ताविषै भावकी शुद्धतासहित जो अनुराग सो अर्हद्भक्ति आचार्यभक्ति बहुश्रुतभक्ति प्रवचन भक्ति कहिये, बहुरि सामायकादि छह आवश्यक क्रियानिका यथाकाल करना सो आवश्यकापरिहाणि कहिए, बहुरि ज्ञान तप जिनपूजाकी विधि इन करि धर्मका प्रकाशना सो