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तृतीय परिच्छेद
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भावार्थ-कुटिलपने का नाम माया है सो मायाचारतें तिर्यंच आयु का आस्रव होय है ॥४८॥
अल्पारंभग्रन्थसन्दर्भदः सौम्याकारैः मन्दकोपादिजन्य । सद्यो जीवो नीयतेमानुषत्वं,
कि नो सौख्यं दीयते शांतरूपः ॥४६॥ अर्थ-मन्दक्रोधादिक कषायनिकरि उपजे अर सौम्य है आकार जिनके, ऐसे अपारंभ परिग्रह की रचना अपमान इन करि जीव जो है सो शीघ्र मनुष्यपणकौं प्राप्त करिए है जैसे शांत है रूप जिनके ऐसे पुरुषनकरि कहा सुख न दीजिए है ? दीजिए ही है।
भावार्थ-अल्प आरम्भ अल्पपरिग्रहपनेंतें मनुष्य आयु का आश्रव होय है ॥४६॥
सम्यग्दृष्टि: श्रावकीयं चरित्रम्, चित्राकामानिर्जरा रागवृत्तम् । आयुर्दैवं प्राणाभाजां ददंते,
शांता भावाः किं न कुर्वति सौख्यम् ॥५०॥ अर्थ-सम्यक्त्व अर श्रावक सम्बन्धी चारित्र अर नानाप्रकार अकामनिर्जरा अर सराग चारित्र ये जीवनकौं देव सम्बन्धी आयु देय हैं, जातें शांतभाव कहा सुख न करै है ? करै ही है।
भावार्थ-पूर्वोक्त भावनि करि देवायुका आस्रव होय है । इहां कोऊ कहै सम्यक्त्व चारित्र तो मोक्षमार्ग है इनितें आस्रव कैसे होय ? ताका उत्तर-एक आधार आत्माविर्षे सम्यक्त्व चारित्र अर रागभाव दौंऊ आधेय होतें सम्यक्त्वचारित्रत तौ निर्जरा होय है, अर रागतें बन्ध होय है ताका साहचर्य देखि उपचारतें कहिए है । सम्यक्त्व चारित्रतें देवायु बंध है, निश्चयतें सम्यक्त्व चारित्रतें निर्जरा है रागनै बन्ध है, जैसें रूढतें कहिये कि यह घृत जलावै हैं तहां घृत जलानेका कारण नाहीं घृत में अग्नि मिल्या है ताते जलै है ऐसा जानना ॥५०॥