SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 71
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्री अमितगति श्रावकाचार । सौख्यध्वंसी जन्यते निन्दनीयो, रौद्रो भावो यः कषायोदयेन । दत्त जन्तोरेष चारित्रमोहं, विद्वेषी वा राध्यमानो निकृष्टः ॥४६॥ अर्थ-जो कषायके उदयकरि निंदने योग्य अर सुख का नाश करनेवाला रौद्रभाव उपजाइये है सो जीवकौं चारित्रमोह देय है, जैौं द्वेषभाव सहित आराध्या भया नीच पुरुष आचरणमें प्रचेतपना उपजावै तैौं। __भावार्थ-क्रोधादिक कषायनके उदयतें जो तीव्रपरिणाम होय ताकरि जीवकै चारित्र मोहका आस्रव होय है ऐसें जानना ॥४६॥ बह्वारंभग्रन्थसन्दर्भद, रौद्राकारस्तीवकोपादिजन्यैः । श्वभ्रावासे प्राप्यते जीवितव्यं, किंवा दुःखं दीयते नावचेष्टः ॥४७॥ अर्थ-बहुत आरम्भ कहिए हिंसा-कर्म, अर यह मेरी वस्तु, मैं याका स्वामी हैं ऐसा आत्मीय भाव सो परिग्रह, इनकी ऐसा रचनाके मदनि करि तथा भयानक है आकार जिनके ऐसे तीव्रक्रोधादिक उपजावनेवाले भावनि करि नरक निवास विष जीवितपना पाइये है, अथवा पापरूप चेष्टानि करि कहा दुःख न दीजिये है ? दीजिये ही है। भावार्थ-बहुआरंभ बहुपरिग्रहते नरकायुका आस्रव होय है ॥४७॥ नानाभेदा कटमानादिभेदै, याऽनिष्टाऽऽराध्यमाना जनानाम् । तैर्य ग्योन जीवितव्यं विधत्ते, किं वा दत्त वंचना न प्रयुक्ता ॥४८॥ अर्थ कट कहिये #ठ मान आदि भेदनिकरि नाना भेदस्वरूप आराध्यमान जो अनिष्ट माया सो तिर्यंच योनिप्रति जीवितपनाकौं धारै है, जैसे प्रयोगकरि ठिगवेकी जो बुद्धिक्रिया सो कहा दुःख न देय है ?
SR No.007278
Book TitleAmitgati Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitgati Aacharya, Bhagchand Pandit, Shreyanssagar
PublisherBharatvarshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages404
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy