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________________ तृतीय परिच्छेद [५५ सातं कर्मोत्पद्यते शर्मपाकं, शिष्टाभिष्ट: पोषितैः सज्जन ॥४४॥ अर्थ-साधनकी सेवा अर जीवन की रक्षा अर क्षमा अर सर्वज्ञ की पूजा अर दान अर निर्लोभ परिणामादिक अर शुभध्यान इन पापरहित क्रिया का आचरण करि सातावेदनोय कर्म उपज है जैसौं उत्तम है, मनोरथ जिनके ऐसे पोषे भये सज्जननि करि सुखका परिपाक उदय होय है तैमैं, यह दृष्टांत हैं ॥४४॥ मोक्तव्येनावर्णवादेन देधे, धर्मे संघे वीतरागे श्रुते च । मद्य नेवाऽऽस्वाद्यमानेन सद्यो, घोराकारो जन्यते दृष्टिमोहः ॥४५॥ अर्थ-देवविष तथा धर्मविर्षे तथा संघविष तथा वीतराग केवली विर्षे तथा शास्त्रविष त्यागनेयोग्य जो अवर्णवाद ताकरि खाद्य भया जो मदिरा ताकरि जैसे घोर है आकार जाका ऐसा देखने में गहलभाव उपजाइए है तैसें दर्शनमोह करि उपजाइए हैं। भावार्थ-अन्तरङ्ग कलुषताके दोषतें न होते दोषनिका प्रगट करना सो अवर्णवाद है, तथा च्यारप्रकार देव है, तिनमें व्यन्तर मांसका सेवनकरै है इत्यादिक कहना सो देवावर्णवाद है, बहुरि जिनभाषित दश प्रकार धर्म गुणरहित है ताके सेवनवाले असुर होय है इत्यादिक कहना सो धर्मका अवर्णवाद है, बहुरि जे मुनि है ते स्नानरहित मलकरि लिपट्या है अंग जिनका ऐसे अपवित्र शूद्र हैं इत्यादिक कहना सो संघ का अवर्णवाद है बहुरि केवली कवलहारतें जीवे वा क्रमप्रवृत्त ज्ञानदर्शन सहित हैं इत्यादि कहना सो केवली का अवर्णवाद है, बहुरि मांस मच्छीका खाना, मदिरा पान सेवना, स्त्री भोगना, रात्रिभोजन इत्यादि पाप रहित हैं ऐसा कहना सो श्रुत का अवर्णवाद है; ऐसे देवादिकके अवर्णवादतें दर्शनमोहका बन्ध होय है, जाकरि संसार विर्षे अनन्त परिभ्रमण होय है ऐसा जानना ॥४५॥
SR No.007278
Book TitleAmitgati Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitgati Aacharya, Bhagchand Pandit, Shreyanssagar
PublisherBharatvarshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages404
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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