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श्री अमितगति श्रावकाचार ....
सो वीर्य कहिए, इनिके नानाप्रकार तोव्रमन्दादि भेदकरि आस्रववि भी भेद है ऐसा जानना ॥४१॥
तिरस्कारमात्सर्यपैशून्यविघ्नप्रधातप्रलापादिदोषैरनेकैः । विबोधावरोधस्तयेक्षावरोधो, दुरन्तैः कृतेर्गृह्यते गर्हणीयः ॥४२॥
अर्थ-ज्ञान दर्शनके धारकनिका वा ज्ञानदर्शनका तिरस्कार करना वा मात्सर्य मद करना वाऐं शून्य चुगली खाना, वा अन्तराय करना वा घात करना वा झूठे दोष कहना इत्यादि अनेक दूर है, अन्त जिनका ऐसे करे भये दोषनि करि निंदने योग्य ज्ञानावरण तथा दर्शनावरण ग्रहण कीजिए है ॥४२॥
बधाकन्ददैन्यप्रलापप्रपंचैनिकृष्टेन तापेन शोकेन सद्यः । परात्मोभयस्थेन कर्मागिवगैरसातं
सदा गृह्यते दुःखपाकम् ॥४३॥ अर्थ--प्राणनिका वियोग करना सो बध, अर अश्रुपातसहित खड़ा विलाप करना सो आक्रन्दन, अर दीनपना कहिए जाहि देखे दया उपगै, तथा प्रलाप कहिये बकवाद इनिके विस्तारनि करि, तथा परके वचन सुनि मनमे कलुषता सो ताप ता करि, यथा ताकी चिन्ता करता इष्टवियोग भये संतें निकृष्ट दुःख जो पीडारूप परिणाम ताकरि, तथा खेदरूप परिणाम जो निकृष्ट शोक ताकरि दुःखरूप है उदय जाका ऐसा जो असाता वेदनीय कर्म ताक जीवनके समूहनि करि सदा शीघ्र ग्रहण कहिए है। कसे कहैं पूर्वोक्त कारण, परविर्षे वा आपविर्षे वा पर आप दोऊनिविर्षे स्थित कहिए वत्तें है।
भावार्थ-आपविष वा परविर्षे वा पर आप दौऊनिविर्षे करे भये बन्धादिक कारण करि असाता वेदनीयका आस्रव होय है ॥४३॥
साधूपास्या प्राणिरक्षा तितिक्षा, सर्वज्ञार्चा दानशौचादियोगः ।