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श्री अमितगति श्रावकाचार
श्रात्रवस्य निरोधो यः, संवरः स निगद्यते । भावद्रव्यविकल्पेन, द्विविधः कृतसंवरैः ॥ ५६ ॥
अर्थ – कर्या है संवर जिनने ऐसे मुनिश्वरनिकरि आस्रवका रोकना सो संवर द्रव्य भाव के भेदकरि दोय प्रकार कहिए है ||५६ ||
क्रोध भभयमोहरोधनं भावसंवरमुरान्ति देहिनाम् । भाविकल्मष निवेशरोधनं द्रव्यसंवरमपास्तकल्मषाः ॥६०॥
अर्थ - नाश किए हैं पाप जिनने ऐसे आचार्य है ते क्रोध लोभ भय मोह इनका जो रोकना ताहि भाव संवर कहैं हैं, बहुरि आगामी कर्मके प्रवेश का रोकना ताहि द्रव्य संवर क हैं हैं ।
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भावार्थ - रागादिभाव रोकना सो भावसंवर कहिए ऐसा जानना अर निमित्त करबद्ध जे कर्मपुद्गल तिनका रोकना सो द्रव्यसंवर कहिए, ऐसा जानना ॥ ६० ॥
धार्मिकः समिति गुप्तो विनिजितपरीषहः ।
प्रक्षापरः कर्म, संघृणोति संसंयमः ॥ ६१॥
अर्थ - धर्मसहित अर समितिसहित अर गुप्तिसहित अर जीते हैं परीषह जानें, ऐसा बहुरि अनुप्रेक्षा में तत्पर अर संयमसहित ऐसा जीव है सो कर्मकौं संवरै है - रोक है ।
भावार्थ -- कषायनिके अभावरूप उत्तमक्षमादि दशधर्म अर प्रमादरहित प्रकृतिरूप पंचसमिति अर भने प्रकार मन, वचन, कायके योगनिका निग्रह रूप तीन गुप्ति, अर मार्ग न छूटने के अर्थि तथा निर्जराके अर्थ सहने योग्य क्षुधादि बाईप परोषह, बहुरि स्वभावका बारंबार चिन्तनरूप अनित्यादि द्वादशानुप्रेक्षा, बहुरि प्राणोनिकी हिंसा अर इन्द्रियनके विषय इनके त्यागरूप सामायिकादि पंचप्रकार संयम ये भाव संवरके विशेष हैं, जातैं इनिकरि रागादि आस्रव रुकै है ऐसा जानना ॥ ६१ ॥
मिथ्यात्वाव्रत कोपादियोगेः कर्म यदर्ज्यते । तन्निरस्यंति सम्यक्त्वव्रतनिग्रहरोधनैः ॥ ६२॥