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________________ ४८] श्री अमितगति श्रावकाचार अर्थ- बहुत है पाप जिनके ऐसे नारकी अर सम्मूछन जीव हैं ते नपुंसक हैं; अर देव हैं ते स्त्रीवेदो, अर पुरुषवेदी हैं; अर बाकी और जीव तीनौं वेद सहित हैं ऐसा जानना ॥२१॥ सचित्तः संवृतः शीतः, सेतरो वा विमिश्रकः । विभेदरांतभिन्नो, नवधा योनिरंगिनाम् ॥२२॥ अर्थ-सचित अर संवत अर शीत, इनित इतर जो अचित्त विवत, उष्ण, बहरि इनकरि मिश्र कहिये सचित्ताचित्तमिश्र संवृतविवृतमिश्र अर शीतोष्णमिश्र ऐसे अन्तर भेदनि करि, भेदरूप जीवनिक नव प्रकार योनि कही है। जीव जहां उपजै ऐसे पुद्गल स्कन्धनिका नाम योनि है, तहां जीव सहित होय ते सचिव है, जीव रहित अचित्त है, गुप्तरूप होय ते संवृत है, प्रगट होय ते विवृत, शीतल होय ते शीत, उष्ण होय ते उष्ण है, अर मिले होय ते मिश्र है ऐसा जानना ॥२२॥ भूरुहेषु दश ज्ञेयाः, सप्त नित्यान्यधातुषु । नारकामरतिर्य क्षु, चत्वारो विकलेषु षट् ॥२३॥ चतुर्दश मनुष्येषु, योनयः सन्ति पिडिताः । सर्वे शतसहस्राणामशीतिश्चतुरुत्तराः ॥२४॥ अर्थ- वृक्षनिकै विर्षे दश लक्ष योनि जाननी, अर नित्यनिगोद इतरनिगोद अर धातु कहिए पृथ्वीकाय अपकाय अग्निकाय वातकाय ये च्यारि ऐसे छह स्थान निविर्षे सात लक्ष योनि जाननी, अर नारकी देव तियंच इनि विर्षे च्यारि च्यारि लक्ष योनि जाननी, विकलत्रयविर्षे छह लख योनि है, अर मनुष्य निविष चौदह लक्ष योनि है। ऐसे सर्व एकठी करी भई चौरासी लक्ष योनि हैं ये पूर्वोक्त सचित्तादि योनिन के विशेष भेद जानने ॥२३-२४॥ गतींद्रियवपुर्यो गज्ञान वेदक धादयः । संयमाहारभव्येक्षालेश्यासम्यक्त्वसंज्ञिनः ॥२५॥
SR No.007278
Book TitleAmitgati Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitgati Aacharya, Bhagchand Pandit, Shreyanssagar
PublisherBharatvarshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages404
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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