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तृतीय परिच्छेद
शरीराक्षायुरुच्छ्वासा, भाषिता निखिलेष्वपि । विकलासंज्ञिनां वाणी, पूर्णानां संज्ञिनां मनः ॥१८॥
प्रर्थ-शरीर इन्द्रिय आयु उच्छवास ये च्यार प्राण सर्व ही पर्याप्तनिवि कहे हैं, अर विकलेन्द्रिय अर असंज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्तनिक भाषा प्राण है, अर संज्ञी पर्याप्त निविर्षे मनप्राण है ॥१८॥
एकद्वित्रिचतुः पंचहषीकाणां विभाजिताः । तेऽन्येषां त्रिचतुष्कं च, षट्सप्तांगायुरिदिगः ॥१६॥
अर्थ-एकेन्द्रिय द्वींद्रिय त्रींद्रिय चतुरिंद्रीय पंचेन्द्रिय जीवनिके भेदरूप प्राण हैं। एकेन्द्रियके स्पर्शनइन्द्रिय शरीर आयु उच्छवास ऐसे च्यार, द्वीन्द्रियक रसनाइन्द्रिय अर वचन मिले छह, त्रीन्द्रिय घ्राण अधिक सात, चतुरिन्द्रियक नेत्र अधिक आठ, असैनी पंचेन्द्रियक श्रवण अधिक नी, संज्ञी पंचेन्द्रियक मन अधिक दश; ऐसे प्रर्याप्तनिक कहे। बहुरि ते प्राण अपर्याप्त निविर्षे एकेन्द्रियक स्पर्शन इन्द्रिय काय आयु ऐसे तीन हैं, द्वींद्रियक रसनासहि। च्चार हैं, त्रींद्रियक घ्राण सहित पांच हैं, चतुरिंद्रियक चक्षुसहित छह है, पंचेन्द्रियकै श्रोत्रसहित सात हैं ऐसा जानना।
जरायुजांडवाः पोता, गर्भजा देवनारकाः । उपपादभभवाः शेषाः, सर्वे सम्मूर्च्छना मताः ॥२०॥
अर्थ-जरायुज कहिए जालवत् प्राणीनिक शरीर ऊपरि आवरण मांस लोहू जामें विस्ताररूप पाइए ता सहित उपजै ते जरायुज. अर अण्डावि उपजै ते अण्डज, अर योनितें निकालताही चालना आदि सामर्थ्ययुक्त उपजे ते पोतज ये तीन प्रकार तो गर्भज हैं, अर देव नारकी हैं ते उपपादशय्या सो है, उपपाद जन्म जिनका ऐसे हैं, बहुरि इनि सिवाय सर्व जीव सम्मूर्छनतें है जन्म जिनका ऐसे कहे हैं ॥२०॥
श्वाभ्रसम्मछिनो जीवा, भूरिपापा नपुंसकाः । स्त्रीवेदा मता देवाः, सचिवेदितया परे ॥२१॥