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तृतीय परिच्छेद
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अर्थ - गति च्यारि, इन्द्रिय पांच, काय छह, योग पन्द्रह, ज्ञान आठ, वेद तीन, क्रोधादिक कषाय च्यार, संयम सात, आहार दोय, भव्य दोय, दर्शन च्यार, लेश्या छह, सम्यक्त्व छह, संज्ञी दोय, ऐसें चौदह मार्गणा कही हैं ॥२५॥
माग्य ते सर्वदा जीवा, यासु मार्गणको विदैः । सम्यक्त्वशुद्धये मार्ग्या, स्ताश्चतुर्दश मार्गणाः ॥२६॥
अर्थ - विचारघि प्रवीण जे पुरुष तिन करि जिन विषै जीव हैं सदा विचारिये हैं ते चतुर्दश मार्गणा सम्यक्त्वकी शुद्धि के अर्थ सदा विचारनी योग्य हैं ॥ २६॥
मिथ्यादृष्टि: सासनो मिश्रदृष्टिः,
सम्यग्दृष्टिः संयतासंयताख्यः ।
ज्ञेयावन्यौ द्वौ प्रमत्ताप्रमत्तौ, सत्रापूर्वेणानिवृत्त्यल्पलोभौ
॥२७॥
शांतक्षीणौ योग्ययोग्यौ जिनेन्द्रौ द्विः सप्त ते गुणस्थानभेदाः । त्रैलोक्याप्रारूढिसोपानमार्गा,
स्तथ्यं येषु ज्ञायते जीवतत्त्वम् ॥ २८ ॥
अर्थ - मिथ्यादृष्टि, सासादन, मिश्रदृष्टि, सम्यग्दृष्टि बहुरि संयता - संयत है नाम जाका, प्रमत्त, अप्रमत्त दोय ये जानने योग्य हैं; अर अपूर्वकरणसहित अनिवृत्तिकरण अर सूक्ष्म लोभ अर उपशांत मोह, क्षीण मोह, संयोगीजिन, अयोगी जिन ऐसे गुणस्थाननिके चौदह भेद हैं, ते त्रैलोक्यका अग्र जो सिद्धपद ताके चढ़ने कू सोपान मार्ग हैं | जिनविषै सांचा जीवतत्व जानिये है ।।२७-२८ ।।
भावार्थ - मोहनीय आदि कर्मनिका उदय उपशम क्षय क्षयोपशम परिणाम रूप जे अवस्था विशेष तिनकौं होत संतें उत्पन्न भये जे भाव कहिए जीवके मिथ्यात्वादिक परिणाम तिनकरि जीव हैं ते "गुण्यंते” कहिए लखिए वा देखिए व लक्षित कहिए; ते जीवके परिणाम गुणस्थान संज्ञाके धारक हैं । तहां मिथ्या कहिये अतत्त्व में है दृष्टि कहिए श्रद्धान जा