________________
द्वितीय परिच्छेद
[३६
कर्मारण्यं छत्त कामैरकामैर्धर्माधारे, व्यापृतिः प्राणिवर्गे । भैषाज्याद्य : प्रासुकैर्वद्ध य ते या,
तद्वात्सल्य कथ्यते तथ्यबोधैः ॥८॥ अर्थ-कमवनके छेदनेके वांछक, वांछकरहित ऐसे पुरुषनि करि धर्मके आधारभूत जीवनिके समूहविर्षे जो प्रासुक औषधि आदिकनिकरि वैयावृत्त्य बढ़ाइये, करिए सो सत्त्यार्थज्ञानी नि करि वात्सल्यगुण कहिये है ॥८॥
जन्मांभोधौ कर्मणा भ्रम्यमाणे, जीवग्रामे दुःखिते नैकभेदे । चित्ता त्वं यद्विधत्ते महात्मा,
तत्कारुण्यं दद्यं ते दर्शनीयैः ॥१॥ अर्थ-संमारसमुद्रविर्षे कर्मकरि भ्रमता अर दुःखित ऐसा अनेक प्रकार जो जीवनिका समूह ताविर्षे जो महापुरुष दयाभावकौं धार है सो कारुण्यभाव दर्शन करने योग्य जे आचार्यादिक तिन करि दिखाइये है।
भावार्थ-संसारी जीवनिकौं देखि जो करुणा करना सो करुणानाम सम्यक्त्व गुण कहिये हैं ॥१॥
ऐसे सम्यक्त्व के आठ गुणनिका वर्णन किया, अब तिनका फल दिखावे हैंप्रवद्ध र्य ते दर्शनमिष्टभिर्गुणः, शरीरिणोऽमीभिरपास्तदूषणः । गुरुपदेशरिव धर्मवेदनं, विधीयमानैर्ह दये निरन्तरम् ॥२॥
अर्थ-जैसे निरन्तर हृदयवि रचेभये जे श्रीगुरुनके उपदेश तिनकरि धर्मका जानपणा बढ़े है तैसें जीवकै दूषणरहित ये संवेगादि आठ गुण तितकरि सम्यग्दर्शन बड़े है ॥२॥