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श्री अमितगति श्रावकाचार
जाते द्वेषे द्वेषरागादिदोष-स्प्र े, भक्त्या लोचना या गुरूणां । पंचाचाराचारकाणामदोषा, सोक्ता गर्दा गर्हणीयस्य हन्त्री ॥७७॥
अर्थ--द्वेष राग आदि दोषनिकरि दोष उपजते सन्त पंचाचारके आचरण करावनेवाले जे गुरु तिनके आगे भक्ति सहित जो आलोचना करिये अपने दोष कहिये सो निंदनीक पापके रहने वाली दोष रहित गर्हा कही है ॥७७॥
रागद्वेषक्रोधलोभप्रपंचाः, सर्वानर्थावासभूता
दुरन्ताः ।
यस्य स्वांते कुर्वते न स्थिरत्वं शांतात्मासौ शस्यते भयसिंहः ॥७८॥ |
श्रथं - सर्व अनर्थनिका घरसमान, दूर है अन्त जिनका ऐसे जे राग द्वेष क्रोध लोभादिकनिके प्रपंच हैं ते जाके चित्तविषै स्थिरताकौं न करें हैं सोहु भव्य प्रधान, शान्त है आत्मा जाका ऐसा प्रशँसा रूप काजिये हैं । भावार्थ - तीव्र रागद्वेष जाके मनमें न होय सो उपशम गुण कहिये ॥ ७८ ॥
लोकाधीशाभ्यर्चनीयांघ्रिपद्य, तीर्थाधीशे साधुवर्गे सपर्या
या निर्व्याजाssरभ्यते भव्यलोकैर्भक्तिः सेष्टा जन्मकांतारशस्त्री ॥७६॥
अर्थ – लोकनिके अधीश जे नरेन्द्र नागेन्द्र देवेन्द्र तिनकरि पूजनीक हैं चरण कमल जाके, ऐसे तीर्थनाथ भए भगवान तिन विषै तथा साधुनिके समूहविषै भव्य जीवनकरि जो कपटरहित पूजा आरंभिये है सो संसार बनके छेदनेवाली भक्ति इष्टरूप कही है ॥७६॥