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द्वितीय परिच्छेद
अर्थ - जो विषयाभिलाषी अज्ञानी सम्यक्त्वकौं त्यागि करि मिथ्यादर्शन से है सो दुष्टचित्त बड़प्पनका वाछक प्रगट राज्यकों छोड़ि करि चाकरीat अंगीकार करें हैं ॥ ७३ ॥
आगैं संवेगादिक सम्यक्त्वके आठ गुण कहे हैं—
तथ्ये धर्मे वस्तहिंसाप्रपंचे, देवे रागद्वेषमोहादिमुक्त | साध सर्वग्रन्थसंदर्भहीने, संवेगोऽसौ निश्चलो योऽनुरागः ॥ ७४ ॥
अर्थ - नष्ट भया है हिंसा का विस्तांर जा विषै ऐसा जो सांचाधर्म ताविषै तथा रागद्वेषमोहादि करि रहित देववि तथा सर्व परिग्रहसमूह करि रहित साधुविषै जो निश्चल अनुराग सो संवेग कह्या है ॥७४॥
देहे भोगे निन्दिते जन्मवासे, कृष्टेष्वाशुक्षिप्तवाणास्थिरत्वे । यद्वराग्यं जायते निःप्रकंपं, निर्वेदोऽसौ कथ्यते मुक्तिहेतुः ॥७५॥
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अर्थ - निंदित शरीरविषै तथा भोगविष बहुरि शीघ्र घाल्या जो वाण ता समान है अस्थिरपना जा विषै ऐसे क्लेशरूप संसारवासविषै जो निश्चल वैराग्य उपजै है सो यहु मुक्ति का कारण निर्वेद कहिये है ॥७५॥
कांतापुत्रभ्रातमित्रादिहेतोः, शिष्टद्विष्टे निर्मिते कार्य जाते ।
पश्चात्तापो यो विरक्तस्य पुंसो, निदा सोक्ताऽवद्यवृक्षस्य हन्त्री ॥ ७६ ॥
अर्थ - स्त्री पुत्र भाई मित्र आदिके कारणतं रागद्वेषरूप कार्यनिके समूहकौं रचे सन्तैं जो विरक्त पुरुष के पश्चात्ताप होय सो पापवृक्षकी नाश करनेवाली निन्दा कही है ॥७६॥