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________________ ४० ] श्री अमितगति श्रावकाचार ... अपार संसारसमुद्रतारकं, वशीकृतं येन सुदर्शनं परम् । वशोकृतास्तेन जनेन सम्पदः, परैरलभ्या विपदामनास्पदम् ॥८३॥ अर्थ-अपार संसार समुद्र का तारने वाला अर विपदानिका अनास्पद कहिये ठिकाना नाहीं ऐसा एक सम्यग्दर्शन जाने वश किया, अङ्गीकार किया ता पुरुषकरि औरनि करि न पावने योग्य ऐसी सम्पदा वश करो ।।८३।। सुदर्शने लब्धमहोदये गुणाः, श्रियो निवासा विकसंति देहिनि । निरस्तदोषोपचये सरोवरे, हिमेतराशाविव पंकजाकराः ॥८४॥ अर्थ-पाया है महाउदय जानें ऐसे सम्यग्दर्शनके होतसन्तै जीवविष लक्ष्मीके निवास जे गुण ते विकासमान होय हैं, कैसा है सम्यग्दर्शन, निरस्तदोषापचये कहिये दूरि किया है शोकादि दोषनिका समूह जाने । जैसे सरोवरविष दूरि किया है दोषा जो रात्रि ताका समूह जानैं अर पाया है महा उदय जानें अर भला ह दर्शन जाका ऐसा सूर्य के होतसन्तै कमलनि के वन लक्ष्मो के निवास हैं ते विकसैं हैं । ___ भावार्थ-लोक कहे हैं लक्ष्मी कमलनिविर्षे वसै है ऐसा अलंकार वाक्य ह । इहां एक एक सूर्यपक्षविर्षे अर दर्शनपक्ष विष समान अर्थ होय है ।।८४॥ दर्शनबन्धोर्नपरो बन्धुर्दर्शन लाभान्न परो लाभः । दर्शनमित्रान्न परं मित्रं, दर्शनसौख्यान परं सौल्यं ॥५॥ __ अर्थ-सम्यग्दर्शनरूप बांधवतै सिवाय और दूसरा बांधव नाहीं अर दर्शन के लाभतें सिवाय और और दूसरा लाभ नाहीं, अर दर्शनतें सिवाय दूसरा मित्र नाही, अर दर्शन के सुखतें सिवाय और दूसरा सुख नाहीं ॥५५॥ .
SR No.007278
Book TitleAmitgati Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitgati Aacharya, Bhagchand Pandit, Shreyanssagar
PublisherBharatvarshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages404
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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