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________________ पंचदश परिच्छेद [३८३ बहत अभ्यास किया भया स्थिरताकौं प्राप्त होय है। तैसे ध्यानाभ्यास भी किया हुआ मोक्षकौं प्राप्त करै है, तातें मुक्त होनेका इच्छुक पुरुष निश्चयतें ध्यानाभ्यास करो ॥१११॥ अवाप्य मानुष्यमिदं सुदुर्लभं, करोति यो ध्यानमनन्यमानसः । भनक्ति संसार दुरंतपनरं, स्फुटं स सद्यो गुरु दुःखमंदिरम् ॥११२॥ प्र-जो यह दुर्लभ मनुष्यपनेकौं पायकरि नांही है अन्य वस्तु विर्षे मन जाका ऐसा ध्यान कर है सो पुरुष दूर है अन्त जाका ऐसा जो संसाररूपी पीजरा बड़े दुःखनिके वसनेका घर है ॥११२॥ यो जिनरष्टं शमयमसहितं, ध्यानमपाकृतसकलविकारः । ध्यायति धन्यो मुनिजनहितं, चित्तनिवेशितपरमविचारः ॥११३॥ मर्ग-जो पुरुष जिनराजकरि कह्या जो कषायनिके अभावरूप शमभाव अर जन्मपर्यन्त पाप क्रियाका त्यागरूप यमभाव तिनकरि सहित जो ध्यान ताहि ध्यावै है सो पुरुष धन्य है। कैसा है ध्यान मुनिजननि करि पूजित है। बहुरि कैसा है सो ध्यानी पुरुष दूर किये हैं रागादि सकल विकार जानें, बहुरि चित्तविष निवेशित कहिए उपज्या है परम विचार कहिए आत्माका विचार जाकै ऐसा है ॥११३॥ नाकिनिकायस्तुतपदकमलो, दीर्णदुरुत्तरभवभयदुःखाम् । याति स भव्योऽमितगतिरनघां, मुक्तिमनश्वरनिरुपमसौख्याम्११४ पर्व-सो पूर्वोक्त ध्यान करनेवाला भव्य पुरुष अविनाशा अर अनुपम है सुख जा विर्षे ऐसी जो निर्मल मुक्ति अवस्था ताकौं प्राप्त होय है, कैसी है मुक्ति अवस्था विदारे हैं नाश किये हैं दुस्तर संसारके भय दुःख जानें। बहुरि कैसा है सो पुरुष देवनिके समूहनि करि स्तुत हैं चरण कमल जाके, बहुरि अमर्यादरूप है ज्ञान जाका।
SR No.007278
Book TitleAmitgati Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitgati Aacharya, Bhagchand Pandit, Shreyanssagar
PublisherBharatvarshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages404
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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