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श्री अमितगति श्रावकाचार
ध्यानको अभ्यास करता अर नाहीं है पर परणति जाकै ऐसा जो पुरुष तार्क कोटि भवकर बांध्या जो पाप सो नाशकौं प्राप्त होय है, जैसें उपशम भाव सहित पुरुषकै कषायनिका समूह नाश होय तैसें ॥६३॥ ध्यानं पटिष्ठेन विधीयमानं, कर्माणि भस्मीकुरुते विशुद्धम् । कि प्रर्यमाणाः पवनेन नाग्निश्चितानि सद्योदहतींधनानि ॥९४॥
अर्थ - ज्ञानी पुरुषकरि कर्या भया निर्मल ध्यान है सो कर्मनिकौं भस्म कर है । जैसें पवनकरि प्रेर्या भया अग्नि है सो संचयरूप जे ईंधन तिनहि शीघ्र कहा नाहीं दग्ध करें है ? करै ही है ॥६४॥
त्यागेन हीनस्य कुतोऽस्ति कीत्तिः, सत्येन हीनस्य कुतोऽस्ति पूजा । न्यायेन हीनस्यकुतोऽस्ति लक्ष्मी, ध्यानेन हीनस्य कुतोऽस्ति सिद्धिः ॥६५॥
अर्थ - दानकरि हीन जो पुरुष ताकी कीर्ति कैसें होय, अर सत्य करि हीन पुरुषकी पूजा कैसें होय, अर न्यायकरि हीन पुरुषकै लक्ष्मी कैसें होय, अर ध्यान करि हीन जो पुरुष ताकै सिद्धि जो मोक्ष सो कैसें होय ||५||
तपांसि रौद्राण्यनिश विधत्तां, शास्त्राण्यधीतांमखिलानि नित्यम् । धत्तां चरित्राणि निरस्ततन्द्रो, न सिध्यति ध्यानमृते तथाऽपि ॥ ६६ ॥
अर्थ - घोर तपनिकौं निरन्तर धारै है तो धारो । बहुरि समस्त शास्त्रनिकों पढ़े है तो पढ़ो, आलस्य रहित चारित्रनिकौं आचर है तो आचरो, तौ भी ध्यान विना सिद्धि न पावै है । सर्व धर्मके अगनिमैं ध्यान मुख्य है ॥६॥
ध्यानं यवहृाय ददाति सिद्धि, न तस्य खेवः परमर्शदाने । क्षयानलं हंति यदावूदें, न तस्य खेदः परवह्निघाते ॥ ६७॥