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पंचदश परिच्छेद
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___ अर्थ-जो ध्यान शीघ्र ही सिद्धपदकौं देय है ता ध्यानकैं और अहमिंद्रादि पदके देनेमैं खेद नाहीं, जैसें जो मेघका समूह प्रलयकालकी अग्निका नाश करै ताकै और अग्नि बुझायवे विर्षे खेद नाहीं ॥१७॥ तपोंऽतरानन्तरभेदभिन्न, तपोविधाने द्विविधे कदाचित् । समस्तकर्मक्षपणे समर्थ, ध्यानेन शुद्ध न समं न दृष्टम् ॥८॥
अर्थ-अन्तरंग वहिरंग भेद करि भिन्न जो दोय प्रकार तपका विधान ता विर्षे निर्मल ध्यान समान सकल कमेनिके नाश करनेमै समर्थ और तप न देख्या।
भावार्थ-और तप तो ध्यानके साधन हैं अर ध्यान मोक्षका साधन है, तातें ध्यान सबनिमैं मुख्य है ॥१८॥
ध्यानस्य दृष्टेति फलं विशालं, मुमुक्षुणाऽऽलस्यमपास्य कार्यम् । कार्ये प्रमाद्यं ति न शक्तिमन्तो,
विलोकमानाः फलभूरिलाभम् ॥६६ अर्थ-या प्रकार ध्यानका बड़ा फल देखिकै मुक्तिका वांछक जो पुरुष ता करि आलस्यकौं छोडिकै ध्यान करना योग्य है, जातें अधिक फलरूप लाभकौं देखते जे सामर्थ्यवान पुरुष हैं ते कार्य विषं आलस्य नाहीं करें हैं ॥६॥ तपोविधानबहुजन्मलो दह्यते संचितकर्मराशिः । क्षणेन स ध्यानहुताशनेन, प्रवर्त्तमानेन विनिर्मलेन ॥१०॥
__ अर्थ-अनेक लाख जन्मनिमैं उपवासादि तपनि करि जो संचयरूप कर्मनिका समूह नाश कीजिए सो कर्मनिका समूह वा जो निर्मल ध्यानरूप अग्नि ता करि क्षण मात्रमैं दग्ध कीजिए है ॥१०॥ निर्वाणहेतोर्भवपातमीताने प्रयत्नः परमो विधेयः । यियासुभिर्मुक्तिपुरोमबाधामुपायहीना न हि साध्यसिद्धिः ॥१०॥