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पंचदश परिच्छेद
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आत्मज्ञानदर्शनमयी है अर रोग रहित है अर मरण उपजने आदि विकार रहित है अर नष्ट भया है पाप जाका ऐसा निर्मल है अविनाशी है सूक्ष्म है ॥८६॥
विग्रहं कृमिनिकायसंकुलं, दुःखदं हृदि विचितयंति ये । गुप्तिबद्धमिव ते सचेतनं, मोचयंति तनुयंत्रमंत्रितम् ॥०॥
अर्थ - कीड़ानिके समूह करि भर्या दुःखदायी ऐसा जो शरीर ताहि हृदय विषे जे पुरुष भिन्न विचारें हैं ते पुरुष शरीर रूप पंच करि वंध्या ऐसा जो आत्मा ताका मानौं गुप्ति बन्धन खोलैं हैं ।
भावार्थ -- जे शरीर अर आत्माकौं भिन्न भावें हैं तिनकैं कर्मबन्धकी निर्जरा होय है ॥ ६१ ॥
स्थित्वा प्रवेशे विगतोपसर्गे, पर्यंकबंधस्थितपाणिपद्मः । नासाग्र संस्थापित दृष्टिपातो, मन्दीकृतोच्छा सविवृद्धवेगः ॥ ६१॥ विधाय वश्यं चपल स्वभावं, मनोमनीषी विजिताक्षवृत्तिः । विमुक्तये ध्यायति ध्वस्तदोषं विविक्तमात्मानमनन्यचित्तः ॥ ६२ ॥
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अर्थ - नाहीं अन्य वस्तु विषें चित्त जाका ऐसा ज्ञानी पुरुष मुक्ति अर्थ रागादि दोष रहित समस्त परद्रव्यनितें भिन्न जो आत्मा ताहि ध्यावे है । कैसा है सो पुरुष दंशमशकादिकी बाधा रहित क्षेत्र विषें तिष्ठ करि पर्यंकासन विषे धरे हैं हस्तकमल जानें । बहुरि नासिकाके अग्र विषे थाप्या है दृष्टिका पड़ना जानें बहुरि वृद्धिकौं प्राप्त भया ऐसा श्वासोच्छ्वासका वेग सो मन्द किया है । बहुरि चञ्चल है स्वभाव जाका ऐसा जो मन ताहि वश करिकै जीती है इन्द्रियनिकी परणति जानें ऐसा पुरुष आत्माको ध्यावे है ॥६१-६२ ॥
श्रभ्यस्यतो ध्यानमनन्यवृत्त रित्थं विधानेन निरन्तरायम् । व्यपैति पापं भवकोटिबद्ध, महाशमस्येव कषायजालम् ॥६३॥
अर्थ - या प्रकार पूर्वोक्त विधान करि अन्तराय रहित निरन्तर