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श्री अमितगति श्रावकाचार
अर्थ – मैं नगर मैं बसू हूँ बनमैं बसू हूँ ऐसी यहु बुद्धि आत्मज्ञान रहित मिथ्यादृष्टीनिकै होय है । बहुरि देख्या है तत्व जिननें ऐसे सम्यग्दृष्टी निकै अविनाशी, नित्य, निर्मल ऐसा जो आत्मा सो ही निवास है ॥८६॥
शुद्धस्य जीवस्य निरस्तमूत्त:
सर्वे विकाराः परकर्मजन्याः ।
मेघादिजन्या इव तिग्मरश्मेविनश्वराः
संति विभास्वरस्य ॥८७॥
अर्थ - अमूर्त्तीक जो शुद्ध आत्मा ताकं समस्त विकार हैं तें कम दयतें उपजै हैं ।
भावार्थ - द्रव्यदृष्टि करि देखिए तौ विकार कर्मजनित है किछु आत्माके स्वभाव नाहीं; जैसें देदीप्यमान जो सूर्य ताके विनाशीक विकार ( हूँ थोड़ा प्रकाश होना कहूँ बहुत प्रकाश होना इत्यादिक) वादला आदिके निमित्तसें होय है, स्वभावज नित नाहीं ॥ ८७ ॥ दृष्टात्मतत्वो द्रविणादिलक्ष्मीं,
न मन्यते कर्मभवां स्वकीयाम्
विपक्षलक्ष्मीं भुवने विवेकी,
प्रपद्यते चेतसि कः स्वकीयाम् ॥८८॥
अर्थ- देख्या है आत्माका स्वरूप जानें ऐसा पुरुष है सा कर्मोदय करि उपजी जे धनधान्यादिकी लक्ष्मी ताहि आपकी न मान | लोक विषै ऐसा कौन विवेको है जो शत्रुकी लक्ष्मीकौं चित्त विषे आपकी मानं ॥ ८८ ॥
ज्ञानदर्शनमयं निरामयं मृत्युसंभवविकारवजितम् । श्रामनंति सुधियोऽत्र चेतनं, सूक्ष्ममव्ययमपास्त कल्मषम् । ८६ ॥
अर्थ - लोक विषं पंडित हैं ते आत्माकौं ऐसा माने हैं: