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________________ पंचदश परिच्छेद [३७५ अर्थ-ज्ञानवान करि देहका अर चेतनका भेद जानना योग्य है जातें भिन्न ज्ञान करि जानने मैं आवे है। जैसे नेत्र इद्रिय अर नासिका इंद्रियके विषय जे रूप गंध ते भिन्न ज्ञान करि जाननेमैं आवें हैं तातै भिन्न भावार्थ-देहतौ इन्द्रिय ज्ञानकरि दीसै हैं अर आत्मा स्वसंवेदन करि दीस है, इन्द्रिय ज्ञानकरि आत्मा न दीसै है अर स्वसंवेदन करि शरीर न आवै है, ऐसे न्यारे ज्ञानकरि जाने जाय हैं तातें शरीर अर आस्मा भिन्न है; जसें रूप नेत्र करि जान्या जाय है, गंध नासिका करि जानिए है; रूप नासिका करि न जानिए है अर गंध नेत्रकरि न जानिए है; तातें गंध रूप भिन्न भिन्न है ऐसा अनुमान दिखाया है ॥ २॥ न यस्य हानितो हानिर्न वृद्धिर्वृद्धितो भवेत् । जीवस्य सह देहेन, तेनैकत्वं कुतस्तनम् ॥३॥ अर्थ-जा शरीरकी हानितें जीवक हानि नाहीं अर जा शरीरकी वृद्धितें जीवकी वृद्धि नाहीं होय है, तातें जीवक देहके साथ एकपना काहेका ? ॥३॥ तत्वतः सह देहेन, यस्य नानात्वमात्मनः । कि देहयोगजस्तस्य, सहैकत्वं सुतादिभिः ॥२४॥ मर्ग-परमार्थतें जिस आत्माकै देहके साथ भिन्नपना है ताके देहके संयोगतें उपजे जे पुत्रादिक तिनकरि एकपना कसें होय ॥८४॥ ममत्वधिषणा येषां, पुत्रमित्रादिगोचरा । साऽऽत्मरूपपरिच्छेदछेदिनी मोहकल्पिता ॥५॥ अर्थ-जिनके पुत्र मित्रादि विर्षे जो ये मेरे हैं ऐसी ममत्व बुद्धि है तिनके ऐसी बुद्धि आत्म ज्ञानकी नाश करनेवाली मोहकरि भई। भावार्थ-मिथ्यात्वके उदयकरि कल्पना मात्र है सत्यार्थ नाहीं॥ पत्तनं काननं सौधमेषा नात्मधियांमतिः । निवासो हष्टतत्वानामात्मै वास्त्यक्षयोऽमलः ॥८६ ॥
SR No.007278
Book TitleAmitgati Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitgati Aacharya, Bhagchand Pandit, Shreyanssagar
PublisherBharatvarshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages404
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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