________________
३७४]
श्री अमितगति श्रावकाचार
अर्थ - जो अज्ञानी पुरुष शरीरादि जे अचेतन पदार्थ तिनकों चेतन मानता अर विनाशीककौं अविनाशी मानता अर सदा आपका नाहीं ताक आपका मानता अर दुःखका कारण तार्कों सुखदायी मानता अर एक नाहीं ताकौं एक मानता सो जीव संसार - समुद्र विषै अतिशयकरि भ्रम है । कैसा है संसार - समुद्र जन्म मरण जरारूप हैं मोरे जा विषै ।।७७-७८॥
श्रात्मनो देहतोऽन्यत्वं, चितनीयं मनीषिणा । शरीरभारमोक्षाय, सायकस्येव कोशतः ॥७६॥
अर्थ- जैसैं तरकशतैं तीरकौं न्यारा देखिए तैसें बुद्धिमान पुरुष करि शरीरका भार त्यागने के अर्थि मोक्ष होनेके अर्थि शरीरतें आत्माका भिन्नपना चितवना योग्य है ॥ ७६ ॥
या देहात्मैकताबुद्धिः, सा मज्जयति संसृतौ ।
सा प्रापयति निर्वाणं, या देहात्मविभेदधीः ॥ ८० ॥
अर्थ – जो देह मैं अर आत्मामें एकताकी बुद्धि है सो संसार मैं डुबो है अर जो शरीरकी अर आत्माकी भिन्न दुद्धि है सो मोक्षकों प्राप्त कर है ॥८०॥
यः शरीरात्मनोरैक्यं, सर्वथा प्रतिपद्यते ।
पृथक्त्व शेमुषी तस्य, गूथमाणिक्ययोः कथम् ॥ ८१ ॥
अर्थ --जो देह अर आत्मा विषै सर्वथा एकपना मान है ताकै विष्टा अर माणिक्य रत्न विषै भिन्नपनेकी बुद्धि कैसे होय !
भावार्थ - आत्मा तौ रत्न समान पवित्र है अर देह विष्टा समान अपवित्र है सो कारणवश विष्टामैं तिष्ठता जो रत्न ताहि जैसैं भूर्ख एक मान तैसें कर्मोदयके वश शरीर मैं तिष्ठता जो आत्मा ताहि मिथ्यादृष्टि एक मान है ऐसा जानना ॥ ८१ ॥
देहचेतनयोर्भेदो, भिन्नज्ञानापलब्धितः ।
सर्वदा विदुषा ज्ञेयश्चक्षुः प्राणार्थयोरिव ॥ ८२॥