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पंचदश परिच्छेद
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निरस्तकर्मसम्बन्धं, सूक्ष्मं नित्यं निरास्त्रवम् । ध्यायतः परमात्मानमात्मनः कर्मनिर्जरा ॥७४।।
अर्थ-अविनाशी जो केवल दर्शन केवल ज्ञान तिनकरि देखे वा जाने हैं चराचर समस्त वस्तु जानें । बहुरि अनंत है स्वरूपते न चलने रूप वीर्य अर निराकुलतारूप आनंद जाके, अर वर्णादि रहित अमूर्तिक है, अर रोगादि उपद्रव रहित है, अर दूर किया है समस्त कर्मका सम्बन्ध जानें, बहुरि जाकौं मनः पर्ययज्ञानी भी देख सकै नाहीं ऐसा सूक्ष्म है, नित्य है, अर रागादिकके अभावतें निराश्रव है ऐसा जो परमात्मा सिद्ध भगवान ताहि ध्यावता जो पुरुष ताकै आपके कर्मनिकी निर्जरा होय है ॥७३-७४।।
आत्मानमात्मना ध्यायन्नात्मा भवति निर्वृतः । घर्षपन्नात्मनाऽऽत्मानं पावकी भवति द्रुमः ॥७॥
अर्थ-जैसे वृक्ष है सो वृक्षकरि घिस्या संता अग्निके भावकौं प्राप्त होय है तैसें आत्मा है सो आपकरि आपकौं ध्यावता संता सुखी होय है, सिद्ध स्वरूप होय है ।।७।।
न यो विविक्तमात्मानं, देहादिभ्यो विलोकते। स मज्जति भवांभोधौ, लिंगस्थोऽपि दुरुत्तरे ॥७६।।
अर्थ-जो पुरुष देहादि परद्रव्य नितें आपकौं न्यारा नाहीं देखै है नांहीं श्रद्धान करै है सो पुरुष मुनि श्रावकके बाह्य लिंगमैं तिष्ठ्या भी दुस्तर संसार समुद्र विर्षे डूबै है, द्रव्यलिंगी मुनि श्रावक भी संसारी ही रहे है तब और जीवनिकी कहा कथा है ।।७६॥
सविज्ञानमविज्ञानं, विनश्वरमनश्वरम् । सदानात्मीयमात्मीयं, सुखदं दुःखकारणम् ॥७७॥ अनेकमेकमंगादि, मन्यमानो निरस्तधीः । जन्ममृत्युजरावत, वंभ्रमीति भवोदधौ ॥७८।।