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________________ चतुर्दश परिच्छेद [३४७ रूपी प्रकाश करि देख्या है लोक जानें। कैसी है मुक्तिपुरी दुःख करि है पावना जाका बड़े बड़े मुनीश्वर जाके अथि खेद करें हैं तो भी न पावै हैं। भावार्थ-जे कामादिकका संवर करें हैं ते केवली होय मुक्तिपुरीकौं पावें हैं इस बिना कोटि कष्टतें भी मुक्ति न होय है ऐसा तात्पर्य है ॥५४॥ दृढीकृतो याति न कर्मपर्वतः, शरीरिणां निर्जरया विना क्षयम् । न धान्यपुंजः प्रलयं प्रपद्यते, व्ययं विना क्वापि विद्धितश्चिरम् ॥५५॥ अर्थ-जीवनीकै दृढ़ किया जो कर्मरूपी पर्वत सो निर्जरा विना क्षयकौं प्राप्त न होय हैं। जैसें वहुत कालतें वृद्धिकौं प्राप्त किया जो धान्यका समूह सो खरच करै बिना कहू भी नाशकौं प्राप्त न होय है तैसें । ___ भावार्थ-जितना कर्म बन्धे तितना ही उदय देय खिरै तौ अनादिकालके संजयरूप कर्म नसें नाहीं। बहरि जब तपश्चरणादिक अनेक कालके बांधे कर्म एक कालमैं खिप तब कर्मका नाश होय तातें तपश्चरणादिकमैं प्रवर्त्तना योग्य है, यहु तात्पर्य है ॥५५॥ निरन्तरानेकभवाजितस्य या, पुरातनस्य क्षतिरेकदेशतः । विपाकजापाकजभेदतो द्विधा, यतीश्वरास्तां निगदंति निर्जराम् ॥५३॥ अर्थ-निरन्तर अनेक भवनि विर्षे उपाा जो कम ताकी एकदेश जो हानि ताहि यतीश्वर निर्जरा कहै हैं सो निर्जरा सविपाक अविपाक भेदतें दोय प्रकार है ॥५६॥ आरौं सविपाक निर्जराका स्वरूप कहै हैं अनेहसा या कलिलस्प निर्जरा, . विपाकजां तां कथयन्ति सूरयः । अपाकजां तां भवदुःखखविणी, विधीयते - या तपसा गरीयसा ।।५७॥
SR No.007278
Book TitleAmitgati Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitgati Aacharya, Bhagchand Pandit, Shreyanssagar
PublisherBharatvarshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages404
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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