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________________ ३४८ ] श्री अमितगति श्रावकाचार - जो अपनी स्थिति पूर्ण रूप उदय काय करि कर्मकी निर्जरा हि आर्य है विपाकजा निर्जरा कहै है । बहुरि जो उम्र तपश्चरण करि करिए है ताहि संसार - दुःखकी नाश करनेवाली अपाक निर्जरा कहै हैं ॥५७॥ विपाकजाया मुदितस्य कर्मणो, मता परस्यामखिलस्य विच्युतिः । यतो द्वितीयाsत्र ततो विधानतः, सदा विधेया कुशलेन निर्जरा ॥ ५८ ॥ अर्थ - जातें सविपाकजा निर्जरा विणें तौ उदयकौं प्राप्त भया जो कर्म ताकी हानि होय है । वहुरि अविपाकजा विणें उदय आया अर बिना उदय आया ऐसा सर्व ही कर्मका नाश होय है तातें प्रवो ण पुरुष करि दूसरी जो अविपाक निर्जरा सो तपश्चरणादि विधानतें सदा करनी योग्य है ॥५८॥ तपोभिरुप्र : सति संवरे रजो, निषूद्यमानं सकलं पलायते । निराश्रवं वारि विवस्वदंशुभि र्न शोष्यमाणं सरसोऽवतिष्ठते ॥५६॥ अर्थ - आगामी कर्मनिका संवर होत सन्तें उग्र तपश्चरण करि नाश किया जो कर्म सो समस्त नाशकौं प्राप्त होय है । जैसें नवीन जलके आश्रव रहित जो सरोवरका जल सो सूर्यकी किरणनि करि सोप्या भया न तिष्ठ है तैसें जानना ॥ ५६ ॥ परेण जीवस्तपसा प्रतापितो, रभसा प्रपद्यते । मलोऽवतिष्ठते, विनिर्मलत्वं सुवर्णशैलस्य प्रताप्यमानस्य कृशानुना कथम् ॥६०॥ अर्थ - उत्कृष्ट तप करि तपाया जो जीव है सो शीघ्र निर्मलपनेकौं प्राप्त होय है । जेसें अग्निकरि तपाया जो सुवर्णका गद्दा ताकै मैल कैंसें तिष्ठै, अपितु नाहीं तिष्ठं है ।
SR No.007278
Book TitleAmitgati Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitgati Aacharya, Bhagchand Pandit, Shreyanssagar
PublisherBharatvarshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages404
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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