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________________ ३३० ] श्री अमितगति श्रावकाचार मिथ्यादृशां वाक्यमपास्य नूनं, पश्यामि नो किंचन कालकटम् ॥२॥ . अर्थ-इस लोक विचे जिनराज करि कह्या जो वचन ता सिवाय और अमृत नाहीं अर मिथ्यादृष्टिनिके वचन विना और कालकूट विषमैं निश्चय करि किछु नाहीं देखू हूं ॥१२॥ विधीयते येन समस्तमिष्टं, कल्पद्र मेणेव महाफलेन । आवर्यतां विश्वजनीनवृत्ति, .. मुक्त्वा परं कर्म जिनागमोऽसौ ॥३॥ . अर्थ-जा करि महाफल सहित कल्पवृक्षकी ज्यौं सर्व मनोवांछित कीजिए ऐसा यहु जिनागम सर्व लोकके हितरूप परिणति सिवाय और कार्यका वर्जन करहु। भावार्थ-जिन वचनके अभ्यासतें हमारे लौकिक कार्यकी वांछा मत होउ; स्वपरके उपकाररूप परिणति होउ ॥१३॥ . ऐसें स्वाध्याय नामा तपका वर्णन कियापरेऽपि ये सन्ति तपोविशेषा, जिनेन्द्रचन्द्रोदितसूत्रहष्टाः । स्वशक्तितस्ते निखिला विधेयाः, विधानतः कर्मनिकर्तनाय ॥४॥ . अर्थ-स्वाध्याय पर्यंत तप तो पहले कहै अर ध्यान तप आगें कहेंगे। बहरि और भी जे तपके भेद सिंहानिःक्रीडितादि जिनभाषित सूत्रने दिखाए ते अपनी शक्तिसारू समस्त विधानपूर्वक कर्मनकी निर्जराके अथि करना योग्य है ॥१४॥ सौख्यं स्वस्थं दीयते येन नित्यं, रागावेशश्छिद्यते येन सद्यः । येनानन्दो जन्यते याचनीयस्तं, सन्तोषं कुर्वते के न भव्याः ॥६॥ अर्थ-जाकरि निराकुल सुख नित्य दीजिए है अर रागका उदय शीघ्र ये दिए है अर जाकरि वांछनेयोग्य मुक्तिपदको आनन्द उपजाइए है ऐसा जो सन्तोष सो कौन भव्य न करै, सर्व ही करें। भावार्थ-सब तपनिमैं तपका मुख्य लक्षण इच्छा निरोध है इच्छा
SR No.007278
Book TitleAmitgati Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitgati Aacharya, Bhagchand Pandit, Shreyanssagar
PublisherBharatvarshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages404
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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