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________________ त्रयोदश परिच्छेद [३२६ अर्थ--कषायनिकी मंदतारूप शमभाव अर संयमभाव इत्यादिक जे पवित्र गुण हैं ते ज्ञानरहित क्षणमात्रमैं चलायमान होय हैं जैसे पत्र अर पुण्यनिकरि भरे ऐसे वृक्ष हैं ते नष्ट भया है जड़का बंधन जिनका ऐसे कितने काल तिष्ठ है, किछ भी न तिष्ठ हैं। भावार्थ-सब गुणनिका मूल ज्ञान है सो ज्ञान बिना और गुण होय नाहीं, ऐसा जानना ॥८॥ जानात्यकृत्यं न जनो न कृत्यं, जैनेश्वरं वाक्यमबुद्धयमानः । करोत्यकृत्यं विजहाति कृत्यं, ततस्ततो गच्छति दुःखमुग्रम् ॥८॥ अर्थ-जिनराज के वचनकौं न जानता जो जीव है सो न करने योग्यकौं वा करने योग्यकौं न जाने है तातें अकार्य जो हिंसादिक ताहि कर है अर कार्य जो वैराग्यादिक ताहि त है तातें तीव्र दुःखकौं प्राप्त होय है ॥८६॥ अनात्मनीनं परिहत्त कामा, प्रहीतुकामाः पुनवात्मनीनम् । . पठंति शश्वज्जिननाथवाक्यं, समस्तकल्याणविधायि संतः ॥१०॥ अर्थ-सन्त पुरुष हैं ते निरन्तर जिनराजके वचनकौं पढ़े हैं। कैसा है जिनवचन समस्त कल्याण करनेवाला है कैसे हैं जिनवचन के पढ़नेवाले पुरुष आत्मा के हितरूप नाहीं ऐसे मिथ्यात्वादिक भाब तिनके दूर करनेके वांछक है। बहुरि आपके अर्थि हित जे सम्यक्तादि भाव तिनके ग्रहण करनेके बांछक हैं ॥१०॥ सुखाय ये सूत्रमपास्य जैन, मूढाः श्रयन्ते वचनं परेषाम् । तापच्छिदे ते परिमुच्य तोयं, भजन्ति कल्पक्षयकालवह्निम् ॥१॥ अर्थ-जे मूढ़ जिनराजके वचनको त्यागकै सुखके अथि अन्य मिथ्यादृष्टिनिके वचन सेवे है ते ताप दूर करनेके अर्थि जलकौं छोड़कै प्रलयकालके अग्निकौं सेवै है ।।६१॥ विहाय वाक्यं जिनचन्द्रहष्टं, परं न पीयूषमिहास्ति किंचित् ।
SR No.007278
Book TitleAmitgati Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitgati Aacharya, Bhagchand Pandit, Shreyanssagar
PublisherBharatvarshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages404
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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