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श्री अमितगति श्रावकाचार
विज्ञातनिः शेष पदार्थजातः कर्मास्रवद्वारपिधानकारी । भूत्वा विद्यते स्वपरोपकारं, स्वाध्यायवर्त्ती बुधपूजनीयः ॥ ८५ ॥
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अर्थ – स्वाध्याय विषै प्रवर्त्तनेवाला पुरुष है सौ जाने हैं श्रुतज्ञानके बलतें सकल पदार्थ जानें अर आश्रव आवनेके द्वार जे मिथ्यात्वादिक तिनका रोकनेवाला ऐसा होय करि आपका वा परका उपकार करे है कैसा है स्वाध्याय करनेवाला पुरुष पंडितनि करि पूजने योग्य है ॥८५॥ यद्द्बुद्धतत्त्वो विधुनोति सद्यो विध्वंसिताशेषहृषीकदोषः । तपोविधानैर्भव कोठिलक्षैर्नूनं तदज्ञो न धुनीति कर्मः ॥ ८६ ॥
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अर्थ- - जान्या है वस्तुका स्वरूप जानें अर नाश किये हैं समस्त इन्द्रियनिके दोष जानें ऐसा पुरुष है सो जा कर्मकौं निर्जरा करै है ता कर्मकौं अज्ञानी अनेक जन्मनिकरि तपके आचरण करि भी निश्चय करि नाहीं निर्जरा है ।
भावार्थ - निर्जरा होय है सो श्रुत ज्ञानके अभ्यासतें भई जो विशुद्धता तातें होय है, केवल कायक्लेशतें विशेष निर्जरा होय नाहीं तातें ज्ञानाभ्यास ही मुख्य है ऐसा जानना ॥ ८६ ॥
निरस्त सर्वाक्षकषाय वृत्तिविधीयते येन शरीरिवर्गः । प्ररूढजन्मांकुरशोषपूषा, स्वाध्यायतोऽस्ति ततो न योगः ॥८७॥
अर्थ - जा स्वाध्याय करि नष्ट भई है सर्वं इन्द्रिय अर कषायरूप परिणति जाकी ऐसा जीवतिका समूह कीजिए है ।
भावार्थ - विषय कषायरहित जीव कीजिए है तातें स्वाध्यायतें न्यारा योग कहिए ध्यान नाहीं ।
भावार्थ - श्रुतके अभ्यास होतें ध्यान होय है ज्ञान बिना ध्यान नाहीं, कैसा है स्वाध्यायतप विस्तारकौं प्राप्त भया जो संसाररूप अंकुर ता सोषनेकौं सूर्य समान है ॥८७॥
गुणाः पवित्राः शमसंयमाद्या, विवोधहीनाः क्षणतश्चलंति ।
कालं कितं दलपुष्पपूर्णास्तिष्ठति वृक्षाः क्षतमूलबंधाः ॥८८॥