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________________ त्रयोदश परिच्छेद [३२७ ग्रंथ अर्थ उभयका प्रश्न करना सो प्रच्छना है। जो आपकी उच्चताके अर्थ परकौं ठगनेंके अथि नीचा पाड़नेके अथि परकी हास्य करनेकौं इत्यादि खोटे खोटे आशयतें पूछ सो प्रच्छनातप नाहीं। वहरि जिस पदार्थ स्वरूप जान्या ताका मनकै विर्षे बारंबार चितवन करना सो अनुप्रेक्षा है । बहुरि पाठकौं शुद्ध घोकना सो आम्नाय है। बहुरि धर्मकथा आदिका अंगीकार उपदेश देना सो धर्मोपदेश है; ऐसे पंच प्रकार जानना ॥१॥ तपौंऽतरानन्तरभेदभिन्न, तपोविधौ किंचन पापहारि । स्वाध्यायतुल्यं न विलोक्यतेऽन्यत्, हृषीकदोषप्रशमप्रवीणम् ॥२॥ अर्थ-अंतरंग अर बहिरंग भेद करि भिन्न जो बारह प्रकार तपका विधान ता विषे स्वाध्याय समान पापकों हरनेवाला और तप न देखिए है, कैसा है स्वाध्यायनामा तप इन्द्रियनिका दोष जो इष्टानिष्ट विषयनिमैं रागद्वेष करना ताके उपसमावनेमें प्रवीण है ॥२॥ स्वाध्यायमत्यस्य चलस्वभावं, न मानसं यन्त्रपितुं समर्थः । शक्नोति नोन्मूलयितुं प्रवृद्ध, तमः परो भास्करमन्तरेण ॥३॥ प्रर्थ-चंचल है स्वभाव जाका ऐसा जो मन ताके रोकनेकौं स्वाध्याय बिना और समर्थ नाहीं, जैसे वृद्धिकौं प्राप्त भया जा अन्धकार ताके नाशकौं सूर्य विना और समर्थ नाहीं तैसें ॥३॥ यः स्वाध्यायः पापहानि विधत्ते, कृत्वैकाग्रयं नोपवासः क्षमस्ताम् । शक्तः कत्त संवृतानां न काय, . लोके दृष्टोऽसंवृत्तौ दुष्टचेष्टः ॥४॥ मर्थ-स्वाध्याय नामा तप एकाग्रपना करि जो पापकी हानि कर है ता पापकी हानिके करनेकौं केवल उपवास समर्थ नाहीं, लोक विर्षे संवर रहित अर दुष्ट है चेष्टा जाकी ऐसा पुरुष संवरसहित जीवनिके करने योग्य जो कार्य है ताहि करनेकौं समर्थ नाहीं। भावार्थ-स्वाध्याय विर्षे संवर होय है तातें कर्मकी निर्जरा होय है अर स्वाध्याय बिना केवल उपवास ही करें सो संवर रहित दुष्टः चेष्टा विष प्रवत्तै ताकै पापकी निर्जरा होय नाहीं ॥४॥
SR No.007278
Book TitleAmitgati Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitgati Aacharya, Bhagchand Pandit, Shreyanssagar
PublisherBharatvarshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages404
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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