________________
३२६]
श्री अमितगति श्रावकाचार
आलोच्यर्जुस्वभावेन, ज्ञानिने संयतात्मने । तदीयवाक्यतः कार्ग, प्रायश्चितं मनीषिणा ॥७॥
प्रर्ण-संयम सहित है आत्मा जाका ऐसा ज्ञानवान जो आचार्य ताके अर्थ सरल स्वभावतें अपने दोषनिकौं कहकै तिस आचार्य के वचननै बुद्धिवान करि प्रायश्चित करना योग्य है ॥७८॥
प्रांजलीभूय कर्तव्यः, सूरे रालोचनस्त्रिधा।
विपाके दुखदं कार्ग, वक्रभावेन निर्मितम् ॥७॥ .. अर्थ--आचार्यसैं मन वचन कोय करि सरल होयके आलोचना करनी योग्य है। जातें कुटिलभाव करि किया कार्य है सो विपाकमैं दुःखदाई है।
भावार्थ-अपनें दोषनिकौं गुरूनतें कहना ताका नाम आलोचना है अर तीनौं योगनिकी सरलतातें करना । कुटिलतातें करें तो उलटा दुःखदाई होय ॥७९॥
फलाय जायते सो, न चारित्रमशोधितम् । · मलग्रस्तानि शस्यानि, कीदृशं कुर्वते फलम् ॥८०॥
मर्थ-विना सोध्या चारित्र है सो पुरुषके फलके अर्थ न होय है जैसे मल जो कडा ताकरि ग्रसे जे सस्य धान्य ते कैसें फल निपजावें, अपि तु नाहीं उपजावें ॥८॥
ऐसे प्रायश्चितका वर्णन किया, आर्गे-स्वाध्याय नामा तपका वर्णन कर हैं
वाचना पृच्छनाऽऽम्नायानुप्रेक्षा धर्मदेशना । 2. स्वाध्यायः पंचधा कृत्यः, पंचमी गतिमिच्छता ॥१॥
अर्थ-पंचमी गति जो सिद्ध अवस्था ताहि इच्छता जो पुरुष ता करि पांच प्रकार स्वाध्याय करना योग्य है, स्वयं कहिए आत्माके अध्यायरूप जो पढ़ना अथवा सु कहिए भलेप्रकार शास्त्रका अध्ययन कहिए वाचनादिक करना सो स्वाध्याय है, सो पांच प्रकार है-तहां निर्दोष ग्रंथ अर्थ उभय इनिका जो भव्य जीवनिकौं देना सिखावना सो तौ वांचना है, बहुरि संशयके दूर करनेकौं निर्वाधननिश्चयके पुष्ट करनेकौं