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त्रयोदश परिच्छेद
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निरोध अर सन्तोष एक ही तातें सन्तोष सब तपनिमैं प्रधान है सो ही परम तप है, ऐसा जानना ॥६५॥
नेष्टं दातुं कोऽप्युपायः समर्थः, सौख्यं नृणामस्ति सन्तोषतोऽन्यः । अंभोजानां कः प्रबोधं विधातु,
शक्तो हित्वा भानुमन्तं हि दृष्ट: ॥६६॥ अर्थ-मनुष्यनिकौं वांछित सुख देनेकौं सन्तोष सिवाय और कोई भी उपाय नाहीं। जैसे लोकमैं कमलनिके प्रफुल्लित करनेको सूर्य सिवाय ओर कोई समर्थ न देख्या तैसें सन्तोष बिना सुख नाहीं ॥६६॥ विमुच्य संतोषमपास्तबुद्धिः, सुखाय यः कांक्षति कंचनान्यम् । दारिद्रय हानाय स कल्पवृक्षं, निरस्य गृह्णाति विषद्र मं हि ॥१७॥
अर्थ-जो अज्ञानी सुखके अर्थि संतोषकौं त्यागकै अन्य कामभोगादिककौं इच्छे है सो दारिद्रयके नाशके अथि संतोषकौं त्यागकै विषवक्षकौं ग्रहण कर है ॥१७॥ क्रोधलोभमदमत्सरशोका, धर्महानिपटवः परिहार्याः । व्याधयो न सुखधातपटिष्ठाः, पोषयंति कृतिनः सुखकांक्षाः ॥१८॥
अर्थ-क्रोध, लोभ, मान, मत्सर, शोक इत्यादिक धर्मकी हानि करनेमैं प्रवीण जे भाव ते त्यागने योग्य हैं जातें सुखके वांछक जे भाग्यवान पुरुष हैं ते सुखके नाश करने मैं प्रवीण जे रोग तिनहि पुष्ट न करै है।
भावार्थ-क्रोधादिभाव हैं ते आकुलतामय है तातें सुखके घातक हैं ते त्यागने योग्य है अर सन्तोष है सो सुखमय है सो ही सुखार्थीनि करि सेवने योग्य है ॥१८॥
सत्त्वेषु मैत्री गुणिषु प्रमोद, क्लिष्टेषु जीवेषु कृपापरत्वम् । माध्यस्थ्यभावो विपरीतहष्टी,
सदा विधेयो विदुषा शिवाय ॥६॥ अर्थ –एकेंद्रियादि सर्व जीवनि विर्षे मैत्रीभाव कहिए कोई भी जीव दुःखी मत होऊ ऐसी भावना, बहुरि सम्यग्दर्शनादि गुणसहित पुरुषमि