________________
त्रयोदश परिच्छेद
[ ३२३
रोगादिक करि क्लेशरूप शरीर जाका होय सो ग्लान कहिए, ऐसे दश प्रकार मुनिनविषें सत्पुरुषनि करि योग्य कहिए, व्रतीन के लेने योग्य प्राक औषधनि करि तथा मन, वचन, काय करि टहल चाकरी करनीयोग्य है कैसे हैं वेयावृत्य करनेवाले पुरुष संसारभ्रमणके त्याग करनेके वांछक हैं ॥६३-६४॥
तपोभिर्दुष्करं रोगैः, वीड्यमानं तपोधनम् ।
यो दृष्ट्वोपेक्षते शक्तो, मिधर्मा न ततः परः ॥ ६५ ॥
अर्थ - दुःखकरि करे जांय ऐसें तपानि करि रोगनिकरि पीड़ित जो साधु ताहि देखकर जो शक्तिसहित पुरुष उपेक्षित कहिए किछू इलाज न कर है देखता है रहि जाय है ता सिवाय और अधर्मी नाहीं ॥ ६५ ॥
गृहस्थोऽपि यतिज्ञेयो, वैयावृत्यपरायणः । वैयावृत्यविनिर्मुक्तो, न गृहस्थो न संयतः ॥ ६६ ॥
अर्थ - जो वैयावृत्य विषं तत्पर है सो गृहस्थ भी यति समान जानना । बहुरि वैयावृत्यकरि रहित है सो न गृहस्थ है न मुनि है || ६६ ॥
वैयावृत्यपरः प्राणी, पूज्यते सम्यतैरपि ।
लभते न कृतः
पूजामुपकारपरायणः ॥६७॥
अर्थ - वैयावृत्यविषं तत्पर जीव है सो संयमीन करि भी पूजिए है, जातें उपकार विषै परायण जे पुरुष ते किसतें पूजा न पावें सर्व हीतें पावे ॥६७॥
संयमो दर्शनं ज्ञानं, स्वाध्यायो विनयो नयः । सर्वेऽपि तेन दीयन्ते, वैयावृत्त्यं तनोति यः ॥ ६८ ॥
अर्थ -- जो पुरुष वैयावृत्यकौं विस्तार है ताकरि संयम सम्यग्दर्शन ज्ञान, स्वाध्याय, विनय, नीति ये सर्वही दीजिए है ।
भावार्थ - वैयावृत्य करनेतें व्रती स्वस्थ होय तब संयमादि निर्विघ्न सधै, तातें जो व्रतीनकी टहल चाकरि करै ताकरि संयमादिक सर्व दिये कहिए ॥ ६८ ॥