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श्री अमितमति श्रावकाचार
निर्वृतिर्वीयते येन, तेन धर्मो विधाप्यते ।
प्रागमोऽध्याप्यते तेन, क्रियते तेन वा न किम् ॥६६॥
अर्थ-जो पुरुषकरि धर्मात्मा जीवनिकों सुख दीजिए है ताकरि धर्म कराइए है अर आगम पढ़ाइए है अथवा ताकरि कहा उत्तम कार्य न कीजिए है सर्व ही कीजिए है।
भावार्थ-धर्मात्मा निराकुल होय तब धर्मसाधन करै शास्त्राध्यापन कर और भी धर्मकार्य करै जातें जो धर्मात्माकौं निराकुल करै ताकरि धर्मादिक सर्व उत्तम कार्य किए कहिए ॥६६॥
समाधीविहितस्तेन, जिनाज्ञा तेन पालिता। धर्मो विस्तारितस्तेन, तीर्थं तेन प्रवत्तितम् ॥७०॥
अर्थ-जो वैयावृत्य करै है तातें समाधि जो शुभ ध्यान सो किया अर जिनराजकी आज्ञा पाली अर तातें धर्म विस्तार्या अर तीर्थ जो रत्नत्रय सो प्रवर्तीया ॥७॥
दुष्प्रापं तीर्शकत त्वं, त्रैलोक्यक्षोभणक्षमम् । प्राप्यते व्यावृतर्यस्या, तस्या: कि न परं फलम् ॥७१॥
अर्थ--तीन लोककौं क्षोभ उपजावने विर्षे समर्थ जाके प्रभावतें इन्द्रादिकनिके आसन कम्पनादि क्षोभ उपजै ऐसा तीर्थक रपना जा वैयावृत्य भावनाका फल पाईए तथा और फल कहां न पाइए; सर्व ही पाइए ॥७१॥
परस्योपाते दुखं, मदा येनोपकुर्वता । संपद्यते कथं तस्य, क्व कार्यं कारणं विना ॥७२॥
अर्थ-जिसपर उपकार करनेवाले पुरुष करि परका दुःख दूर कीजिए है ताकै दुःख कैसे होय. जाते कारण बिना कार्य कैसे होय ?
भावार्थ-दुःखका कारण अशुभ भाव है सो परोपकारीकै अशुभ भाव नाहीं तब आप दुःखी कैसें होय, ऐसा जानना ॥७२॥
सेव्यो दीर्घायुरादेयो, नोरोगो निरुपद्रवः । वदान्यः सुन्दरो दक्षो, जायते स प्रियंवदः ॥७३॥