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________________ श्री अमितगति श्रावकाचार अर्थ - सम्यग्दर्शन ज्ञानादि च्यार कारण जो सुख देय हैं सो और कर्म सुख कैसें देया जैसें जो मित्र कार्य करै सो वेरी कदाच नाहीं करै ॥२०॥ ३१४] ये संति साधवो धन्याश्चतुरंगविभूषणाः । विधेयो विनयस्तषां मनोवाक्कायकर्मभिः ॥२१॥ अर्थ – जे धन्य साधु पुरुष दर्शन ज्ञान चारित्र तप ये च्यार अग ही है भूषण जिनके ऐसे हैं तिनका विनय मन वचन कायकरि करना योग्य है ॥२१॥ गुणनामनवहानां तदीयानामनारतम् । चितनीय पटोयोभिरूपबृ ंहणकारणम् ॥२२॥ - तिन साधूनके निर्मल गुणनिका निरंतर बुद्धिवाननिकरि चितवन करना योग्य है कैसा हैं साधूनके गुणका चितवन धर्म aढावका कारण है ॥२२॥ ध्यायतो योगिनां पथ्यमपथ्यप्रतिषेधनम् । मानसो विनयः साधोर्जायते सिद्धिसाधकः ॥ २३ ॥ अर्थ - योगीश्वरनका हितरूप अर अहितका निषेध करनेवाला कार्य ताहि ध्यावता जो पुरुष ता साधुकै मौक्षका साधक मानसिक विनय होय है ॥२३॥ यश्चितयति साधूनामनिष्टं दुष्टमानसः । सर्वानिष्टख निर्मूढो, जायते स भवे भवे ॥२४॥ अर्थ- जो दुष्ट साधुनका अनिष्ट विचारै सो मूढ़ सर्व अनिष्टनिकी खानि भव भव विषें होय है ||२४|| दुर्भगो विकलो मूर्खो, निविवेको नपुंसकाः । कोचकर्मकरो नीचो, याति दूषण चिंतक ॥। २५शा अर्थ - यतीनके दूषणका चितवन करनेवाला पुरुष है सो दुर्भग होय है विकलांग होय है मूर्ख होय विवेक रहित होय नपुंसक होय नीच कर्मका करनेवाला नीच होय ||२५||
SR No.007278
Book TitleAmitgati Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitgati Aacharya, Bhagchand Pandit, Shreyanssagar
PublisherBharatvarshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages404
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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