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________________ त्रयोदश परिच्छेद चतुरंगमिद साधोः, पोष्यमाणमहनशम् । सिद्धि साधयते सद्यः, प्रार्थितां नृपतेरिव ॥ १५ ॥ अर्थ - यह च्यार भेदरूप मुनिराजका आचरण निरन्तर पोष्या भया शीघ्र ही वांछित मोक्षकों साधे है जैसें राजाकी चतुरंग सेना पोषी भई वांछित सिद्धिकौं साधै है स ||१५|| सिसाधयिषते सिद्धि, चतुरंगमृतेऽत्र यः । स पौतेन विना मूढ़स्तितीर्षति पयोनिधिम् ॥१६॥ अर्थ - जो सूढ़ दर्शन ज्ञान चारित्र पत इनि च्यार कारण विना मोक्षकौं साधे चाहै है सो मूढ़ जहाज विना समुद्रकौं तिरया चाह है ॥१६॥ लोकद्वयेऽपि सोख्यानि दृश्यंते यानि कानिचित् । जन्यं ते तानि सर्वाणि चतुरंगेण देहिनः ॥१७॥ , अर्थ - - निश्चयकरि इस लोकमैं अर परलोकमैं जे केई सुख देखिए हैं ते सर्व जीवकै दर्शन ज्ञान चारित्र तपरूप चतुरंग करि उपजाइए है ॥ १७॥ निरस्यति रजः सर्वं ज्ञेयं सूचयते हितम् । 1 [ ३१३ मातेव कुरुते किं न चतुरंगनिषेवणा ॥१८॥ अर्थ – सर्वं रज जो पाप ताहि दूर करै है अर हित बतावें है ऐसें ऐसें माताकी ज्यौं दर्शन ज्ञारित्र तपकी सेवा कहा न करे है, सर्व ही हित करें है ॥ १८ ॥ चतुरंगमपाकृत्य कुर्वते कर्म ये परम् । कल्पद्र ुममपाकृत्य, ते भजंति विषद्र मम् ॥१६॥ अर्थ - जे पुरुष दर्शन ज्ञानचारित्र तप इनि च्यार कारणनिकों तागकै और क्रियाकर्म करें है सा कल्पवृक्षकों छोड़कों विषवृक्षकों सेव है ॥१६॥ चतुरंगं सुखं दत्त, यत्तत्कर्म परं कथम् । यत्करोति सुहृत्कार्यं तन्न वैरी कदाचन ॥२०॥ ....
SR No.007278
Book TitleAmitgati Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitgati Aacharya, Bhagchand Pandit, Shreyanssagar
PublisherBharatvarshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages404
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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