________________
त्रयोदश परिच्छेद
[३१५
विज्ञायेति महाप्राज्ञा;, संयतानामरेपसाम् । संचितय ति नानिष्टं, त्रिविधेन कदाचन ॥२६शा
अर्थ-ऐसें जानकरि महाबुद्धि है ते पापरहित जे मुनिराज तिनका अनिष्ट मन, वचन, कायकरि कदाच न चिन्तवै है ॥२६॥ ... श्रवणीयमनाक्षेपं, सपर्याप्रतिपादकम् ।
अनवज्ञापरं तश्यं, मधुरं हृदयंगमम ॥२७॥
अर्थ -सुनने योग्य सन्देह रहित पूजाका उपजावनेवाला अर अनिंदामैं तत्पर सत्यार्थ मधुर हृदयकौं प्यारा ॥२७॥
वचनं वदतः पथ्य, रागद्वेषाद्यनाविलम् ।
वाचिको विनयोऽवाचि, वचनीय निखर्वकः ॥२८॥ . अर्थ- रागद्वषादि करि मलीन नाहीं ऐसा हितरूप बोलता जो पुरुष ताकै वचन सम्बन्धी दोषनिका दूर करनेवाला वचन सम्बन्धी विनय जानना ॥२८॥
अभ्याख्यानतिरस्मारकारकं गुणदूषकम् । न वाच्यं वचनं भक्त स्तपोधनविनिंदकम् ॥२६॥
अर्थ-जातें साधूनके दोष प्रकट होय ऐसा वचन तथा अनादर करनेवाला वचन तथा गुणकादूषक वचन तथा साधूनिका निंदकवचन श्रावकनि करि बोलना योग्य नाहीं ॥२६॥
वदंति दूषणं दीना, ये साधूनामनेनसाम् । ते भवंति दुराचारा, दूष्या जन्मनि जन्मनि ॥३०॥
अर्थ-जे अझानी पापरहित साधूनके दूषण कहै हैं ते दुराचारी जन्म जन्म विष दूषणकौं भजें हैं ॥३०॥
अनादेयगिरो गाः, क्लेशिनः शोकिनो जडाः । यतिनिदापराः सन्ति, जन्मद्वितयदूषिताः ॥३१॥