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द्वादशम परिच्छेद
कर्त्त व्या महीपृष्ठे प्रासुके
सर्वभोगोपभोगानां, शयितव्यं
विहाय सर्वमारंभमसंयमविवर्द्ध कम् । विरक्तचेतसा स्थेयं, यतिनेव पटीयसा ॥१३०॥
विरतिस्त्रधा ।
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कृतसंस्तरे ॥ १२६॥
तुतीये वासरे कृत्वा सर्वमावश्यकादिकम् । भोजयित्वाऽतिथिं भक्त्या भोक्तव्यं गृहमेधिना ॥ १३१ ॥ उपवासः कृतोऽनेन विधानेन विरागिणा । हिनस्त्ये कोऽपि रेपांसि, मांहीव दिवाकरः ॥१३२॥
श्रर्थ -- धारणेके दिन दोय प्रहर विषै भोजन करके आचार्य निके निकट जायकरि भक्तितें वंदना करकें आगम अनुसार कायोत्सर्ग करके ।। १२५ ।। बहुरि पंचांग नमस्कार करके आचार्यके वचनतै उपवासकौं ग्रहण करके फेरि विधान तें कायोत्सर्ग करकें ॥। १२३ ।। आचार्यकौं स्तवनतें स्तुति करकै अर गणधर देवकौं वंदिकै ताकै अनन्तर दोय दिन कहिए सोलह प्रहर स्वाध्याय मैं आमक्त जो मन ताकरि व्यतीत करना योग्य है ।
भावार्थ- सोलह प्रहर स्वाधाय मैं लीन रहे ॥ १२७ ॥ बुद्धिवान ताकरि आचार्यकौं साक्षिकरि ग्रह्या जो उपवास सो अतिशय करि निश्चल होय है । जैसे व्यवहार कार्य बडेनके साक्षीभूत किया स्थिर होय है तैसें गुरु की साक्षी धार्या उपवास निश्चल होय है ॥१२८॥ बहुरि उपवास मैं सर्वं भोग उपभोगनिका त्याग मन वचन काय करि करना योग्य है, अर कर्या है तृणादिकका संस्तर जहां ऐसे प्रासुक पृथ्वीतल पर सोवना योग्य है || १२ || असंयमका बढावनेवाला जा सर्व आरम्भ ताहि त्यागिकैं मुनिकी ज्यों विरक्तचित्त होयकै बुद्धिवान करि तिष्ठना योग्य है ॥ १३० ॥ बहुरि तीसरे दिन सर्व आवश्यक क्रिया करके अतिथिको भक्ति करि भोजन करायकै श्रावककरि भोजन करना योग्य हैं ॥१३१॥ इस विधान करि