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________________ ३०८] श्री अमितगति श्रावकाचार विरागी पुरुष करि किया जो उपवास सो एक भी जैसैं सूर्य अन्धकारकौं हरे तैसें पापकौं हरै है ॥१३२॥ उपवासं विना शक्तो, न परः स्मरमर्दने । सिंहेनेव विदार्यते, सिंधुरा मदमंथराः ॥१३३॥ अर्थ-जैसे मदोन्मत्त हस्ती हैं ते सिंहकरि विदारिए हैं तैसे उपवास बिना कामके नाश करने विर्षे और समर्थ नाहीं ॥१३३।। उपवासेन संतप्ते, क्षिप्रं नश्यति पातकम् । ग्रीष्मार्काच्यासिते तोयं, कियत्तिष्ठति भूतले ॥१३४॥ अर्थ-उपवास करि तप्तायमान भया जो पुरुष ता विर्षे पाप शीघ्र ही नाशकौं प्राप्त होय है। जैसे ग्रीष्मके सूर्यकरि व्याप्त जो पृथ्वीतल ता बिष जल कितना तिष्ठै शीघ्र ही सूखि जाय तैसे उपवासते पाप नसि जाय है ॥१३४॥ नित्यो नैमित्तिकश्चेति, द्वधाऽसौ कथितो बुधैः । प्राषधे स मतो नित्यो, बहुधाऽन्यो व्यवस्थितः ॥१३५॥ अर्थ–सो यह उपवास पंडितनिकरि नित्य अर नैमित्तिक ऐसे दोय प्रकार कह्या है सो प्रोषध जो अष्ठमी चतुर्दशीपर्व ता विष तौ नित्य कह्या है अर अन्य जो नैमित्तिक सो बहुत प्रकार व्यवस्थित है ॥१३॥ उपवासा विधीयन्ते, ये पंचम्यादिगोचराः। उक्ता नैमित्तिकाः सर्वे, ते कर्मक्षपणक्षमाः ॥१३६॥ अर्थ-जे पंचमी आदि विषं उपवास करिए हैं ते सर्व कर्मके नाश करने मैं समर्थ नैमित्तिक उपवास कहे हैं ॥१३६॥ गुरुतरकर्मजालसलिलं भववृक्षकरं, बहुपरिणाममेघनिवहप्रभवं प्रसभम् । क्षपयति सर्वमुनमुपवासपयोजपतिविरचितसंवृतनिखिलदेहितडागततेः ॥१३७॥
SR No.007278
Book TitleAmitgati Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitgati Aacharya, Bhagchand Pandit, Shreyanssagar
PublisherBharatvarshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages404
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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