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द्वादशम परिच्छेद ।
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अर्थ-जा बि सर्व स्पर्शनादि इन्द्रिय है ते अपना अपना कार्य जो स्पर्शादि विषयनिमैं प्रवत ना तातें रहित भए सन्ते आत्माके निकट प्राप्त होयकरि वसिए सो उपवास कहिए ॥११६॥
स सार्वकालिको जैनैरेकोऽन्योऽसार्वकालिकः । द्विविधः कथ्यते शक्तों, हषीकाश्वनियन्त्रणे ॥१२०॥
अर्थ-सो उपवास एक तौ सार्वकालिक कहिए यावज्जीव धारणा, दूजा असार्वकालिक कहिए कालके प्रमाणरूप, ऐसे दोय प्रकार जैनीन करि कहिए है, कैसा है उपवास इन्द्रियरूप घोडेनके रोकनेमें समर्थ है ॥१२०॥
तत्राद्यो म्रियमाणस्य, वर्तमानस्य चापरः । कालानुसारतः कार्य, क्रियमाणं महाफलम् ॥१२१॥
अर्थ-तहां आदिका सार्वकालिक उपवास है सौ जाका मरण निकट होय संन्यास धरै ताकै होय है, बहुरि दूसरा असार्वकालिक उपवास है सो वर्तमान पुरुषके चतुर्दशी आदि पर्वके कालविर्षे मर्यादारूप होय है, जातें कालके अनुसारतें किया भया कार्य है सो महाफलरूप होय है ॥१२१॥
वर्तमानो मतस्त्रेधा, स वर्यो मध्यमोऽधमः। कर्तव्यः कर्मनाशाय, निजशक्त्यनुगृहकैः ॥१२२॥ अर्थ-सो वर्तमान कहिए कालका नियमरूप उपवास है सो उत्तम, मध्यम, अधम ऐसें तीनप्रकार कह्या है सो अपनी शक्तिकौं न छिपावनेवाले ऐसे जे पुरुष तिन करि कर्मके नाशके अर्थि करना योग्य है।
भावार्थ-शक्तिसारू उपवास कर्मकी निर्जराहीके अर्थ करना योग्य है, ख्ताति लाभ पूजादिकके अर्थ न करना ऐसा अभिप्राय है ॥१२२॥
चतुर्णां तत्र भुक्तीनां, त्यागे वर्यश्चतुर्विधः । उपवास: सयानीयस्त्रिविधो मध्यमो मताः ॥१२३॥