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श्री अमितगति श्रावकाचार
वाणी मनोरमा तस्य शास्त्रसंदर्भगमिता । श्रादेया जायते येन, क्रियते मौनमुज्ज्वलम् ॥ ११४॥
अर्थ -जा पुरुष करि निर्मल मौन करिये हैं ताकि शास्त्ररचना करि युक्त मनकौं प्यारी आदर करने योग्य वाणी होय है ।।११४ ॥ पदानि यानि विद्यन्ते, वन्दनीयानि कोविदैः ।
सर्वाणि तानि लभ्यन्ते, प्राणिना मौनकारिणा ॥ ११५ ॥
अर्थ - जे पंडितनि करि वन्दनीक पद हैं ते सर्व पद मौन करनेवाला जो जीव ताकरि पाइए है ॥ ११५ ॥
निर्मलं केवलज्ञानं, लोकालोकावलोकनम् ।
लीलया लभ्यते येन, किं तेतान्यन्न कांक्षितम् ॥ ११६॥
श्रर्थ - लोकालोक का देखनहारा ऐसा निर्मल केवलज्ञान जा करि लीलापात्र करि पाइए ताकरि और वांछित वस्तु कहां न पाइए, अपि तु पाइए ही है ।। ११६ ॥
ऐसें मौन व्रतका वर्णन किया । आर्ग-उपवासका वर्णन करें हैं रागो निवार्यते येन, धर्मो येन विवद्धर्यते । पापं निहन्यते येन, सयमो येन जन्यते ॥ ११७ ॥ अनेक भय संबद्ध कर्मकाननपावकः ।
उपवासः स कर्त्तव्यो नीरागीभूतचेतसा ॥११८॥
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श्रर्थ - जाकरि रागभाव निवारिए है अर धर्म बढ़ाइए है अर पाप नाशिए है अर संयम भाव उपजाइए है ।। ११७।। सो उपवास रागरहित भया है चित्त जाका ऐसे पुरुष करि करना योग्य है, कैसा है उपवास अनेक भवमैं बन्धे जे कर्म सो ही भया वन ताकौं अग्नि समान है ॥११८॥
उपेत्याक्षाणि सर्वाणि, निवृत्तानि स्वकार्यतः 1
वसंति यत्र स प्राज्ञपरुपवासो विधीयते ॥११॥