SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 318
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ द्वादशम परिच्छेद [ ३०३ नसार्वकालिके मौने, निर्वाहव्यतिरेकतः । उद्योतनं परं प्राज्ञैः, किंचनापि विधीयते ॥११०॥ प्रर्थ -सार्वकालिक कहिए यावज्जीव मौनविर्षे निर्वाह विना (निर्वाहक सिवाय) पंडितनि करि किछ भी उद्योतन न करिए है ॥११०॥ आवश्यके मलक्षेपे, पापकार्ये विशेषतः । मौनी न पीड्यते पापैः, सन्नद्धः सायकैरिव ॥१११॥ अर्थ-सामायिकादि आवश्यक क्रिया विष, मलके क्षेपण विर्षे, बहुरि पाप कार्य जो मैथुन सेवन आदि ता विर्षे मौनका धारी जीव है सो पाप करि न पीडिए है। जैसे वख्तर पहरे योद्धा है सो बाणनि करि न पीड़या जाय है तैसें मौनी पापनि करि न बन्धै है ॥१११॥ कोपादयो न संक्लेशा, मौनव्रतफलार्थिना। पुरः पश्चाच्च कर्तव्याः, सद्यते तद्धितः कृतः ॥११२॥ अर्थ-मौनव्रतके फलका वांछक जो पुरुष ताकरि आगें बा पीछे क्रोधादि कषाय करना योग्य नाहीं, जातें करे जे क्रोधादि कषाय तिन करि मौन व्रत नाश कीजिए है। मावार्थ-मौनके पहले वा पीछे कषाय न करना । कषायतें मौन व्रत निष्फल होय है ॥११२॥ वाचं यमः पवित्राणां, गुणानां सुखकारिणाम् । सर्वेषां जायते स्थानं, मणीनामिव नीरधिः ॥११३॥ अर्थ-वचनका संयम है सो पवित्र अर सुखकारी जे सर्वगुण तिनका स्थान होय है जैसे रत्ननिका स्थान समुद्र होय है तैसें। भावार्थ-वचनका संयम है सो सर्व गुणनिका स्थान है, ऐसा जानना ॥११३॥
SR No.007278
Book TitleAmitgati Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitgati Aacharya, Bhagchand Pandit, Shreyanssagar
PublisherBharatvarshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages404
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy