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एकादश परिच्छेद
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पृथ्वोतल विर्षे विहार कर हैं ॥५॥ बहुरि इन्द्रको आज्ञा करि कुबेर जिनकी समवसरण भूमिकाकौं करै हैं, कैसी है समवसरण भूमिका स्वर्गकी शोभाकौं जीतनेवाली अर तीन लोकके जीवनि करि भरी ऐसी है ॥६॥ बहुरि जिनकी देह सुन्दर सुगन्धरूप निर्मल सोहै है, केसी है देह आदिका वज्रवृषभनाराच "है संहनन जा विषं अर आदिका समचतुरस्र है संस्थान जाका अर पसेवरहित अर दूध समान श्वेत है रुधिर जाका ऐसी है ॥७॥ बहुरि जिनका द्वेष करनेवाला पुरुष क्षयकौं प्राप्त होय है अर भक्ति करनेवाला लक्ष्मीकौं प्राप्त होय है, बहुरि ते भगवान न द्वेष करै हैं न राग करै तिन दोऊन विष समान परणति है ॥८॥
जिनकी अतिशय रहित अर तीन भुवनकौं संतोष करनेवाली अर अन्य हरिहरादि विष न पाइए ऐसी जो लक्ष्मी ताहि कहनेकौं कोऊ समर्थ नाहीं है ॥६॥ बहुरि राग द्वेष मद क्रोध लोभ मोह इत्यादिक समस्त दोष हैं ते न तिष्ठै हैं जैसैं तप्त भूमिमैं नोले नहीं रहै हैं ॥१०॥ इंद्रादिकनि करि पूजित ते अहंत भगवान शक्ति माफिक भक्तितै द्रव्य भाव स्वभावरूप दोय प्रकार पूजा करि पूजने योग्य हैं ॥११॥
वचोविग्रहसंकोचो द्रव्यपूजा निगद्यते । तत्र मानससंकोचो भावपूजा पुरातनः ॥१२॥
अर्थ-वचनका अर शरीरका जो संकोच कहिए और क्रियानित रोकि जिनेन्द्र सन्मुख करना सो द्रव्यपूजा कहिए हैं, अर मनका संकोच कहिए अन्य तरफतै रोकि जिनभक्तिमै लगावना सो पुराणे पुरुषनि करि भावपूजा कहिए है ॥१२॥
गंधप्रसूनसानाशदीपधूपाक्षताविभिः । क्रियमाणाय वा ज्ञेया द्रव्यपूजा विधानतः ॥१३॥