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________________ २८०] श्री अमितगति श्रावकाचार आद्य संहतिसंस्थाना निःस्वेदा क्षीरशोणिता। राजते सुन्दरा येषां सुगन्धिरमला तनुः ॥७॥ येषां द्विष्टः क्षयं याति तुष्टो लक्ष्मी प्रपद्यते । न रुष्यंति न तुष्यंति ये तयोः समवृत्तयः ॥८॥ लक्ष्मी सातिशयां येषां भुवनत्रयतोषिणीम् । अनन्यभावनी शक्तो वक्तुं कश्विन्न विद्यते ॥६॥ रागद्वषमदकोधलोभमोहादयोऽखिलाः । यैषु दोषा न तिष्ठति तप्तेषु न कुला इव ॥१०॥ शक्तितो भक्तितोऽर्हतो जगतीपतिपूजिताः।। ते द्वधा पूजया पूज्या द्रव्यभावस्वभावया ॥११॥ अर्थ-जिन करि भाव द्रव्य स्वभावनि करि सहित ऊँचे जे कर्मपर्वत ते ध्यानरूप वज्र करि भेदे हैं, कैसे हैं कर्मपर्वत दुःखरूप सर्पनिकी पंक्ति करि आकुल है। भावार्थ-जिन भगवान भावकर्म रागादिक द्रव्यकर्म ज्ञानावरणादिक पुद्गल स्कन्ध ते ध्यान करि नाश किये हैं ॥१॥ बहुरि जे गर्भादि पंचकल्याणके भोक्ता तीर्थंकर देव कर्मके क्षयतें उपजी पापके करनेवाली अर मुक्तिकी दूती समान ऐसी नव केवललब्धिनकौं प्राप्त भए हैं ॥२॥ वहुरि जिनकी आश्चर्य उपजावनेवाली सर्व भाषामयी ताल वा होठके चलने करि रहित ऐसी दिव्यध्वनि तीन जगतकौं ज्ञान करती सन्ती है ॥३॥ बहुरि जिनके छत्र चमरादि अष्ट प्रातिहार्य रचिकै सर्व लोकके नायक जो इन्द्रादिक हैं ते आदर सहित लोक विर्षे अतिशय उपजावनेवाली जो पूजा ताहि करते भए ॥४॥ बहुरि जैसे मेघ जलनिकौ बरसावते लोकमैं विचरै तैसें सन्ताप हरनेवाले वचननको फैलावते सन्ते जे भगवान जीवनके पुण्य करि
SR No.007278
Book TitleAmitgati Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitgati Aacharya, Bhagchand Pandit, Shreyanssagar
PublisherBharatvarshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages404
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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