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________________ २७८ ] प्रदह्यते श्रयन्ति श्री अमितगति श्रावकाचार ध्यानकृशानुनाऽखिलं, सिद्धि विधुतापदं सदा ॥ १२३ ॥ अर्थ - याप्रकार सुखी करनेवाली महान लक्ष्मीकौं भोगकै दोय तीन भवनिविषं समस्त कर्मनिकौं ध्यान अग्नि करि जरायके ते जीव आपदा रहित मोक्ष अवस्थाकौं सदा से हैं ॥ १२३॥ विधाय सप्ताष्टभवेषु वा स्फुटं, जघन्यतः कल्मषकक्षकर्त्तनम् । ग्रजंति सिद्धि मुनिदानवासिता, व्रतं चरन्तो चरन्तो जिननाथभाषितम् ॥ १२४ ॥ अर्थ - अथवा मुनिराज निके दानकी है वासना जिनके ऐसे जीव हैं ते जिनभाषित व्रतकौं आचरते सन्ते जघन्यपनें सन्तें सात आठ भवविषें कर्मवनकौं काटकै निश्चयकरि मुक्तिकौं प्राप्त होय हैं, ऐसा जानना ।। १२४ ।। पात्रदानमहनीयपादपः, शुद्धदर्शनजलेन वद्धितः । यद्ददाति फलमचितं सतां, तस्य को भवति वर्णने क्षमः ।। १२५ ।। अर्थ – निर्मल सम्यग्दर्शनरूप जलकरि वृद्धिकौं प्राप्त भया ऐसा -- पात्रदानरूपी पूजनीक वृक्ष है सो सत्पुरुषनिके पूजित ऐसा जो फल देय है ताके वर्णनविषै कौन समर्थ है, अपितु कोई समर्थ नाहीं ॥ १२५ ॥ गणेशिनाऽमितगतिना यदीरितं, न दानजं फलमिदमीर्यते परैः । विभासितं दिनमणिना यदंवरं, न भास्यत कथमपि दीपकैरिदम् ॥ १२६ ॥ अर्थ - अपरिमित हैं ज्ञान जिनके ऐसे गणधर देवनि करि यहु दानजनित फल का सो फल और करि न कहिए है । जैसें जो आकाश सूर्य करि प्रकाशित किया सो यहु दीपकनि करि कोई प्रकार भी नहीं प्रकाशिये है, ऐसा आनना ॥ १२६ ॥
SR No.007278
Book TitleAmitgati Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitgati Aacharya, Bhagchand Pandit, Shreyanssagar
PublisherBharatvarshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages404
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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