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________________ एकादश परिच्छेद [२७७ निधुवनकुशलाभिः पूर्णचन्द्राननाभिः स्तनभरवनिताभिर्मन्मथाध्यासिताभिः । पृथुत्तरजघनाभिर्वधूराभिर्वधूभिः समममलवचोभिः सर्वदा ते रमन्ते ॥१२०॥ अर्थ-सुन्दर स्त्रीन करि निर्मल वचन सहित ते देव सदा रमैं हैं, कैसी हैं ते स्त्री कामसेवन विर्षे प्रवीण है अर पूर्णचन्द्रमा समान है मुख जिनका अर स्तननके भारकरि नम्रीभूत है अर कामकरि व्याप्त है अर विस्तीर्ण है जघन स्थान जिनका ऐसी देवीन सहित ते देव रमैं है ॥१२०॥ दिवोऽवतीोजितचित्तवृत्तयो महानुभावा भुवि पुण्य शेषतः । भवन्ति वंशेषु बुधाचितेषु विशुद्धसम्यक्त्वधना नरोत्तमाः ॥१२१॥ अर्थ-ते देव स्वर्गतें अवतरिकै बाकीके पुण्यतें पृथ्वीविर्षे पंडितनिकरि पूजित वंशनिविर्षे नरनिविर्षे उत्तम चक्रवर्त्यादिक होय हैं, कैसे है ते उदार है चित्तकी परणति जिनकी ऐसे अर महानुभाव अर निर्मल सम्यक्त है धन जिनकै, ऐसे होय है ॥१२१॥ अवाप्यते चक्रधरादिसम्पदं मनोरमामत्र विपुण्यदुर्लभाम् । नयंति कालं निखिलं निराकुलाः न लभ्यते किं खलु पात्रदानतः ॥१२२॥ अर्थ-ते जीव इस लोकविर्षे पुण्यरहित जीवनकौं दुर्लभ ऐसी सुन्दर चक्रवर्ती आदिकनिकी सम्पदाको प्राप्त होयकै निराकुल भये सन्ते समस्त कालकौं व्यतीत करै हैं, जातें पात्रदानतें कहा न पाइए है ? सर्व ही पाइए है, ऐसा जानना ॥१२२॥ निषेध्य लक्ष्मीमिति शर्मकारिणी, प्रथीयसी द्वित्रिभवेष कल्मषम् ।
SR No.007278
Book TitleAmitgati Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitgati Aacharya, Bhagchand Pandit, Shreyanssagar
PublisherBharatvarshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages404
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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