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________________ एकादश परिच्छेद [ २५५ स्वयमेव श्रियोऽन्विष्य धन्यं दातारमन्धसः । पायांति तरसा श्रेष्ठाः सुभगं वनिता इव ॥१८॥ अर्थ-आहारदान देनेवाले पुरुषकौं बेगि करि लक्ष्मी है ते स्वयमेव श्रेष्ठ आय प्राप्त होय है । जैसें श्रेष्ठ स्त्री है ते सुन्दर पुरुषकौं आय प्राप्त होय तैसें ॥१८॥ सम्पदस्तीर्थकतणां चक्रिणामर्द्धचक्रिणाम् । भजन्त्यशनदं सर्वाः पयोधिमिवनिम्नगाः ॥१६॥ अर्थ-तीर्थंकरनिकी चक्रवर्तीनिकी अर्द्धचक्रवर्तीनिकी सर्व संपदा हैं ते आहार देनेवाले पुरुषकौं सेवे हैं जैसे नदी समुद्रकों सेवै तैसें ॥१६॥ प्रक्षीयन्ते न तस्यर्था, ददानस्यापि भूरिश । ददाना जनतानन्दं, चन्द्रस्येव मरीचयः ॥२०॥ अर्थ-जैसे लोचनकौं आनन्द दैती जे चन्द्रमाकी किरण ते क्षीण न होय हैं तंसें बहुत दान देनेकी भी सम्पदा क्षीण न होय है ॥२०॥ तत्फलं ददतः पृथ्वी, प्रासुकं यच्च भोजनम् । अनयोरन्तरं मन्ये, तृणाब्धिजलयोरिव ॥२१॥ अर्थ-पृथ्वीकौं देता जो पुरुष ताका जो फल है। बहुरि प्रासुक भोजनकौं देते पुरुष ताका जो फल है, इनि दोऊनिका अन्तर तृणकी अणीका जल अर समुद्रका जठ इनि दोऊनिका अन्तर है तंसें मायूँ हूँ। भावार्थ -- पृथ्वी दानका नौ लोकम प्रयंपा मात्र फल : अर पाप बडा, अनज दानव। कोउ भयक सुख की पल : नात इनिया बारा 01..
SR No.007278
Book TitleAmitgati Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitgati Aacharya, Bhagchand Pandit, Shreyanssagar
PublisherBharatvarshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages404
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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