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________________ २५६] श्री अमितगति श्राकवाचार अन्नदानप्रसादेन यत्र यत्र प्रजायते । ततोज्इयते भोगै भास्वानिव रश्मिभिः ॥२२॥ अर्थ-जैसे सूर्य जहां जहां जाय तहां तहां किरणनिकरि न छोड़िए है तैसें अन्नदानके प्रसाद करि जहां जहां जीव जाय तहां भोगनि करि नाहीं छोडिए है ॥२२॥ ददानोऽशनमानं यत्फलं प्राप्नोति मानवः । दानात्सुवर्णकोटीनां न कदाचन तद्ध वम् ॥२३॥ अर्थ-भोजनमात्र देता जो पुरुष सो जिस फलकौं पावै है सो कोड . सुवर्णकौं देता जो पुरुष सो निश्चयतें कदाच न पावं है ॥२३॥ विना भोगोपभोगेभ्यश्चिरं जीवति मानवः । न विनाऽऽहारमात्रेण तुष्टिपुष्टि प्रदायिना ॥२४॥ अर्थ –भोग उपभोग विना तो मनुष्य बहुत काल जीव है । बहुरि संतोष अर पुष्टपनाकौं देनेवाला जो भोजन ताविना न जीवै है ॥२४॥ केवलज्ञानतो ज्ञानं निर्वाणसुखतः सुखम् । पाहारदानतो दानं नोत्तमं विद्यते परम् । २५॥ अर्थ- केवलज्ञानते और दूजा उत्तम ज्ञान नाहीं, अर मोक्ष सुखतें और दूजा सुख नाहीं, अर आहारतें और दूजा उत्तम दान नाहीं ॥२५॥ अंधसा क्रियते यावानुपकारः शरीरिणः ।। न तावान् रत्नकोटिभिः पुंजिताभिरपि स्फुटम् ॥२६॥ अर्थ - प्राणीका जितना उपकार भोज न करि करिये हैं तितना उपकार एकठे किये कोड्यां रत्नानि करि भी प्रगटपने नहीं करिये है ॥२६॥
SR No.007278
Book TitleAmitgati Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitgati Aacharya, Bhagchand Pandit, Shreyanssagar
PublisherBharatvarshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages404
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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