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दशम परिच्छेद
पन्नागानामिव प्राणिवित्रासिना, मर्जने रक्षणे पोषणे सेवने । यातिघोराणि दुःखानि येषां जनः, संति भोगाः कथं ते मतः धीमताम् ॥६३॥
अर्थ - प्राणीनकों दुःख देनेवाले सर्पनके समान जो भोग तिनके उपजाने विषे रक्षणविष पोषणविष सेवनेविषै भयानक दुःखनिकौं जीव प्राप्त होय. है ते भोग बुद्धिवाननिके मनें भए कैसे होय ।
भावार्थ - भोगनिक बुद्धिमान सुखकारी कैसें माने, अपितु नाहीं मानं ॥ ६३ ॥
श्रीयमाणा श्रपि
वंचयंते,
निषेव्यमाणा ग्रपि मारयंते ।
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ये पोष्यमाणा श्रपि पीडयंते,
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ते संति भोगाः कथमर्थनीयाः ॥ ६४ ॥
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पर्थ - जे भोग प्रीति करे भए भी ठिगे हैं अर सेये भये भी मारे है
अर पोषे भए भी पीडा उपजावै है ते भोग कैसे वांछने योग्य होय हैं, अपितु नाहीं होय हैं ॥ ६४॥
उत्पद्यमाना निलयं स्वकीयं, ये हव्यवाहा इव धार्यं माणाः । हृदयं ज्वलंत, स्टो याचनीयाः कथमद्रियार्थाः ॥ ६५ ॥
प्रप्लोषयंते
प्रनं- जैसें जाज्वल्यमान उपजी भई अग्नि हैं ते अपने स्थानको जलावें तैसें वे भोग इच्छा करि धरेभए मन विषे जलते संते हृदयकौं जलाव है ते इंद्रियनिके भोग कैसें बांधने योग्य होय ॥ ६५ ॥