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श्री अमितगति श्रावकाचार -
भावार्थ रागी जीवनकौं तारनेकौं वीतराग ही समर्थ है अन्य नाहीं, ऐसा जानना ॥५६॥
सर्वदोषनिचिताय फलार्थी, यो ददाति धनमस्तविचारः । तद्दधाति स मलिम्लुचहस्ते,
कानने पुनरपि ग्रहणाय ॥६०॥ अर्थ-जो विचारहित पुरुष फलका अर्थी दोषनि करि व्याप्त पुरुषके अर्थ धनकौं देय है सो वन विर्षे चौंरनके हाथमैं फेर पाछा लेनेकै अर्थ धन सौंपै है ॥६०॥
दानं यतिभ्यो ददता विधानतो, मतिविधेया भवदूःखशांतये । दुरंतसंसारपयोधिपातिनी,
न भोगबुद्धिर्सनसाऽपि धीमता ॥६१॥ अर्थ--विधान सहित यतीनके अथि दान ताकरि संसार दुःखकी शांतिके अथि बुद्धि करनी योग्य है, अर दूर है अन्त जाका ऐसा जो संसार-समुद्र ताविर्षे पटकनेवाली जो भोगनिकी बुद्धि सो बुद्धिवानकरि मनकरि भी करनी योग्य नाहीं। ___, भावार्थ-दान देकरि परमार्थहीकी बुद्धि करनी, भोगनिकी अभिलाषा न करनी ॥६१॥
प्रदाय दानं वतिनां महात्मनां, यो याचते भोगमनर्थकारणम् । मनीषितानेकसुखप्रदं मणि,
प्रदाय गृह्णाति स दुर्जरं विषम् ॥६२॥ अर्थ-जो पुरुष महात्मा ब्रतीनकौं दान देकरि अनर्थका कारण जो भोग ताहि वांछ है सो वांछित अनेक सुखका देनेवाला जो रत्न ताहि देकरि दुर्जर विषकौं ग्रहण करै है ॥६२॥