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दशम परच्छेद
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नो दातारं मन्मथानान्तचितः, संसारातेः पाति पापावलीढः । अभ्भोराशेर्दुस्तरा ल्लाहमय्या,
नावा लोहं तार्यमाणं न दृष्टम् ॥५७॥ प्रर्भ-कामकरि व्याप्त है चित्त जाका ऐसा पापरूप पुरुष सो दाताकौं संसारकी पीडातें न बचावै है, जाते दुस्तर समुद्रतें लोहमयी नावकरि लोह तिराया न देख्या है ॥५७॥
ग्रन्थारम्भकोधलोभादि पुष्टो, ग्रन्थारम्भकोधलोभादिपुष्टम् । जन्माराते रक्षितुं तुल्यदोषो,
नूनं शक्तो नो ग्रहस्थो गृहस्थम् ॥५॥ अर्थ--आचार्य तर्क करि कहैं हैं अहो ! जो परिग्रह आरम्भ क्रोध, लोभ इत्यादिकनि करि पुष्ट है, परिग्रहकरि गुरु है सो परिग्रह आरम्भ क्रोध लोभ आदि करि पुष्ट जो गृहस्थ ताहि संसार वैरीतें रक्षा करनेकौं समर्थ नाहीं, कैसा है सौ गुरु गृहस्थ समान है दोष जा विर्षे।
भावार्थ-परिग्रहादि दोषनि करि तैसा दाता तैसा ही पात्र सो दोष सहित पात्रका कैसैं भला करै ऐसी आचार्यनै तर्क करी है, ऐसा जानना ॥५॥
लोभमोहमदमत्सरहीनो, लोभमोहमदमत्सरगेहम् । पातिजन्मजलधेरपरागो,
रागवन्तमपहस्तितपापः ॥५६॥ अर्थ-दूर किया है पाप जानै ऐसा वीतराग लोभ मोह मद भावकरि रहित पात्र है सो लोभ मोह मद मत्सर भावनिका घर जो रागी पुरुष ताहि संसार-समुद्रतें रक्षा कर है ।